रविवार, 18 जनवरी 2009

इदं न मम

'इदं न मम' अर्थात यह मेरा नही है, कुछ भी मेरा नहीं है यही भारतीय दर्शन है। वही दर्शन शाश्वत होता है जो प्राकृतिक होता है और इदं न मम ही प्राकृतिक है। आपने कभी पशुओं को देखा है, वे पूर्ण आस्था और ममत्व से अपने बच्चों का पालन करते हैं, उन्हें देख कर ऐसा भ्रम होता है कि इन्हे अपने बच्चों में पूर्ण आसक्ति है, परन्तु जैसे ही बच्चा अपनी उदर पूर्ति में सच्छम हो जाता है, माता और संतति का वह सम्बन्ध स्वतः समाप्त हो जाता है। आपने कभी पक्छियों को देखा है, कैसे एक एक दाना चुन कर माता शिशु के मुख में रखती है, परन्तु जैसे ही वह शिशु उड़ने में सक्छम हो जाता है माता चिंता मुक्त हो जाती है। आप वृक्षों को देखें, उनमें फल लगते हैं और जब फल पकने लगते है तो वृक्ष स्वयं उन्हें अपने से दूर कर देते हैं। कभी आम के वृक्ष को देखें, पपीते के वृक्ष को देखें, उसका कच्चा फल तोडें तो वृक्ष से एक द्रव स्त्रावित होता है, यह उस वृक्ष की पीड़ा है, क्यों कि उस फल को पोषण के लिए अभी वृक्ष की आवश्यकता थी; परन्तु फल पक जाने पर फल को तोड़ने से कोई द्रव स्त्रावित नही होता है। यह प्राक्रतिक दर्शन है कि इस जगत में जो कुछ भी है उसमें हमारा कुछ भी नहीं है। भारतीय दर्शन प्राकृतिक दर्शन है, इसीलिये शाश्वत है, यह यहाँ के जीवन में रचा बसा है, इसी लिए 'सबै भूमि गोपाल की' और 'तेरा तुझको अर्पण' जैसे वाक्य जन जन के मुख पर रहते हैं; परन्तु मुख से कहना अलग बात है और उसे ह्रदयंगम करना अलग बात है। हम कहते तो बहुत कुछ हैं परन्तु आचरण सर्वथा विपरीत करते हैं, सामान्य रूप से देखने को मिलता है कि व्यक्ति अपने तक अथवा अपने पुत्रों तक का ही प्रबंध नहीं करता है अपितु आगे की कई पीढियों की चिंता करता है। जिस देह को हम अपनी समझते हैं, वह भी अपनी रहने वाली नही है। इसी बात को धर्मराज युधिष्ठिर ने बहुत ही सुंदर शब्दों में व्यक्त किया था कि ' हर व्यक्ति जानता है कि एक दिन उसका अंत होगा परन्तु आचरण ऐसा करता है जैसे वही अमर रहेगा'
भारत में उत्पन्न सभी मतों ने 'इदं न मम' को यथार्थ रूप में माना और जाना है तथा उसका गुणानुवाद भी किया है। जैन मत में तो इसकी पराकाष्ठा हो गयी है, तन के वस्त्र का भी मोह त्याग दिया। भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा ' कर्मण्येवाधीकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' अर्थात कर्म करो फल की कामना मत करो। फल तो तुम्हारा है ही नही और कर्म तो तुम्हे करना ही पड़ेगा, यही प्रकति का नियम है, इसी नियम का पालन करते हुए पशु अपने बच्चों को दूध पिलाते हैं और स्नेह करते हैं, पक्क्षी पूर्ण मनोयोग से एक एक दाना चुगाते हैं और वृक्ष फलों का पोषण करते हैं; परन्तु उनकी कहीं आसक्ति नही है, कार्य की आवश्यकता समाप्त, कार्य समाप्त, सम्बन्ध समाप्त। भगवान् कृष्ण ने तो इससे भी आगे बढ़ कर अर्जुन से कहा, कि अर्जुन तुम कर्म में भी स्वतंत्र नही हो, तुम कह रहे हो तुम युद्ध नही करोगे, परन्तु प्रकति तुमसे करवा लेगी, तो जो कर्म तुम कर रहे हो वह भी तुम्हारा नही है, फिर फल का तो प्रश्न ही नही है। इदं न मम ही शाश्वत है और वर्तमान समस्त समस्याओं का समाधान भी है। यही वह दर्शन है जिसे बड़ा से बड़ा आतताई, बड़ा से बड़ा संचयी भी एक दिन स्वीकारता है, कहते हैं सिकंदर ने अपने अंत समय में कहा था कि 'सबको बता दिया जाय, कि सिकंदर मुट्ठी बांधे आया था और हाथ पसारे जा रहा है' कोई किसी के प्रति अन्याय न करे। सिकंदर समझा परन्तु विलंब से समझा अन्यथा हजारों ललनाओं के माथे का सिन्दूर नही पूछता सहस्त्रों माताओं की गोद सूनी नही होती। विश्व शान्ति के लिए समझना और मानना ही होगा इदं न मम।

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के गौरव पूर्ण ८०० वर्ष

समाचार पत्रों में यह पढ़ कर कि कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी अपनी स्थापना के ८०० वर्ष पूर्ण कर चुकी है, अपार आसमाचारनंद हुआ। इसकी स्थापना १२०९ ई में हुई थी, तब से अब तक लाखों लोगों को ज्ञान प्रदान कर के सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करती रही है और तब तक 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का उद्घोष करती रहेगी जब तक कोई भीषण प्राकृतिक आपदा या कोई नरपिशाच अथवा जंगली असभ्य समुदाय इसे नष्ट ना कर दे. हमने पढ़ा था कि कभी भारत भी उच्च शिक्छा का केन्द्र रहा है, तो उसके वे शिक्छा केन्द्र कहाँ गए जबकि कैम्ब्रिज ८०० वर्ष पश्चात भी विश्व को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित कर रही है, तो भारतीय शिक्छन संस्थान क्यों नही कर सके। भारत के कुछ शिक्छन संस्थान विश्व विख्यात रहे हैं।
१ तक्छ्शिला विश्वविद्यालय : यह विश्वविद्यालय की वर्तमान परिभासा में तो नही आता था परन्तु एक गुरुकुल जैसा शिक्छा का प्रमुख केन्द्र था जो वर्तमान रावलपिन्डी के समीप था इसकी इस्थापना ईसा से ६०० वर्ष पूर्व अर्थात अब से २६०० वर्ष पूर्व हुई थी। संस्कृत व्याकरण के जनक पाडिनी, अर्थशास्त्र के रचयिता और चन्द्र गुप्त मौर्य के गुरू कोटिल्य, भारतीय चिकित्सा विज्ञान के जनक चरक आदि इसी विद्यालय की देन थे। अशोक महान के समय यह विद्यालय अपने उत्कर्ष के चरम पर था। लगभग १००० वर्ष तक विश्व को ज्ञान के भण्डार से आलोकित कराने के उपरांत किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा में नष्ट हो गया।
२ नालंदा विश्व विद्यालय: यह एक पूर्ण विश्वविद्यालय था जिसमें विभिन्न राष्ट्रों के १०००० से अधिक विद्यार्थी विद्या अध्यन करते थे और १५०० से अधिक विद्वान अध्यापक उनका मार्ग दर्शन करते थे। यहाँ सभी विषयों की शिक्छा प्रदान की जाती थी, यहाँ नौ मंजिला एक पुस्तकालय भी था जिसमें हजारों हस्तलिखित पान्दुलिपिया थी, जिनमे ज्ञान का अक्छय भण्डार था। इस विद्यालय की स्थापना बिहार में पटना के समीप गुप्त सम्राट कुमार गुप्त ने ५वी शताब्दी में की थी, चीनी यात्री ह्युएंसाअंग ने यहाँ तीन वर्ष तक शिक्षा प्राप्त की थी परन्तु ११९३ई में एक असभ्य, जंगली मुग़ल सेनापति बख्तियार खिलजी ने न केवल इसे ध्वस्त कर दिया अपितु ज्ञान के अच्छत भण्डार पुस्तकालय को भी जला दिया जिसमें हस्तलिखित पुस्तकें ६ माह तक जलती रही और हजारों विद्यार्थी तथा अद्यापकों को मौत के घाट उतार दिया, इस प्रकार एक महान शिक्छा केन्द्र का ७०० वर्ष में ही अवशान हो गया।
३ विक्रम शिला : इसकी स्थापना पाल सम्राट धर्मपाल ने मगध के समीप ७८० से ८१५ ई के मध्य की थी। यहाँ विद्यार्थियों के निवाश एवं भोजन की व्यवस्था भी निशुल्क थी, इस विद्यालय को भी बख्तियार खिलजी ने १२वी शताब्दी में नष्ट कर दिया था। इस असभ्य एवं जंगली संमुदाय के वंशज आज भी विश्व के लिए, उसकी सभ्यता और ज्ञान के लिए ख़तरा बने हुए हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने ईरान में शरीयत के नाम पर विद्वानों का कत्ल करवाया, अमेरिका में ट्रेड टावर पर आक्रमण किया और भारत में भी गोधरा तथा मुंबई जैसे जघन्य कार्य किए। क्या इनकी कुद्रष्टि से कैम्ब्रिज बच्चा रहा सकेगा।

बुधवार, 7 जनवरी 2009

जो तोको कांटा बोवे ताहि बोव तू भाला

हमारे साथ पाकिस्तान १९४७ से ही बदतमीजी करता चला आरहा है और हम हैं की उसे सबूत पर सबूत प्रस्तुत करते चले जा रहे हैं और वह उन्हें नकारता चला जा रहा है, भारत ना तो कमजोर है और ना ही बुजदिल, ये उसके भारतीय(हिंदू) संस्कार हैं जो उसकी सहिष्णुता को कायरता की हद तक प्रस्तुत करता है, हम भूल रहे हैं कि दुष्ट के साथ दुष्टता, मक्कार के साथ मक्कारी आवश्यक है , महाभारत में पांडव सत्य के मार्ग पर होने पर भी यदि कौरवों के छल का जवाब छल से नहीं देते तो युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता, पांडव कब के परास्त हो गए होते या लाक्छा ग्रह में जल कर मर गए होते, जुए के नकली पासों, लक्छा ग्रह में छल पूर्वक पांडवों को जला कर मारने का षड़यंत्र और अभिमन्यु की निर्मम ह्त्या का प्रति उत्तर पितामह की, द्रोणाचार्य और जयद्रथ की ह्त्या कर के दिया गया था और यह सब हुआ था कृष्ण की प्रेरणा से, आज भी भारत को उसी प्रपंच की आवश्यकता है, क्या हम जमीन में गढे पत्थर को उखाड़ने में नही लगे हैं और इस बार मारा तो मारा अब मार कर दिखाओ (ग्रह मंत्री की चेतावनी) वाली कहावत को चरितार्थ नही कर रहे हैं ? और अपेक्छा कर रहें हैं कि हमारे लिए कोई दूसरा राष्ट्र पाकिस्तान को दण्डित करेगा, जो स्वयं की सहायता नही कर सकता उसकी सहायता इश्वर भी नहीं करता है। दुष्टों के साथ दुष्टता ही एक मात्र उपाय है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये नेता सम्पूर्ण राष्ट्र को भ्रम में रख कर स्थिति को टालने में लगे हैं और अफजल गुरू की तरह इस कसाब को भी तब तक पालेंगे जब तक किसी अति विशिष्ट व्यक्ति के अपहरण के नाटक के पश्चात (जैसा मुफ्ती मोहम्मद सईद की पुत्री का हुआ था) इन्हे मुक्त ना कर दिया जाय। इन्हे जन सामान्य की म्रत्यु से कोई कष्ट होता भी है या नही। संभवतः जब तक बड़े राजनेताओं पर कोई आंच ना आए ये उसे भारत पर आक्रमण नही मानते हैं। बलवान और समर्थ व्यक्ति का साथ सभी देते हैं। कहावत है 'कमजोर मित्र से बलवान शत्रु ' अच्छा होता है। आज अमेरिका सहित सभी बड़े राष्ट्र भारत से इस्राइल जैसी आक्रामकता की अपेक्छा कर रहे थे जो अन्दर तक घुस कर आतंकवादियों को नष्ट करता। जहाँ तक युद्ध से जन धन की हानि की बात है तो वह तो अब भी हो रही है और पूरे विश्व के समक्छ कायर और नपुंसक के रूप में प्रस्तुत भी हो रहे हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि:
'टेढ़ जान संका सब काहूँ, वक्र चंद्रमही ग्रसही ना राहू '