शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

पर हित सरिष धरम नहिं भाई

            आज सम्पूर्ण विश्व में एक अजीब सा व्यर्थ का संघर्ष चल रहा है। समाचार पत्र उठाएं या समाचार चैनल देखें अधिकाँश समाचार आतंक, अपराध और पीड़ा से सम्बंधित  ही होते हैं। अच्छे और उत्साह वर्धक समाचारों का अकाल सा पड़ गया है, सम्पूर्ण वातावरण विषाक्त सा है।  यह तब है जब विभिन्न मतों को मानने वाले धर्माचार्य निरंतर धर्म के मार्ग पर चलने का उपदेश करते दिखाई देते हैं और लाखों की संख्या में उन्हें सुनने वाले भी, फिर भी हम धर्म के मार्ग पर नहीं चल रहे, कारण क्या है? स्पष्ट है धर्म की भिन्न भिन्न व्याख्या होने के कारण; भिन्न भिन्न धर्मों को मानने वाले भिन्न भिन्न मार्गों पर चलते हुए अपने धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने हेतु अशांत और संघर्ष रत हैं और चाहते हैं कि सभी उनके धर्म का अनुशरण करें। क्या धर्म कई है? नहीं, धर्म केवल और केवल एक है। क्या धर्म अलग अलग भाषाओं में भाषा बद्ध है? नहीं, उसकी एक और एक ही भाषा है। 
            जो धारण किया जाय वही धर्म है। किसके द्वारा धारण किया जाय? प्राणी मात्र के द्वारा धारण किया जाय। केवल, पुरुष द्वारा नहीं, स्त्री द्वारा नहीं, मानव द्वारा भी नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्राणी मात्र द्वारा धारण किया जाय। 'सर्वे भवन्तु सुखिना ' अर्थात सब सुखी हों का भाव ही धर्म है। धर्म देश और काल की सीमाओं से परे है। धर्म सत्य है जो शाश्वत है, वह सबके लिए सामान रूप से उपयोगी है, उसकी भाषा ईश्वरीय भाषा है जो सहज और सरल है तथा सहज समझ में आने वाली है। धर्म को परिभाषित करते हुए महर्षि वेद्व्याषजी ने कहा है : 'अष्टादश पुराणेषु वेदव्यासश्य वचनं द्वै , परोपकाराय पुण्याय पापाय पर पीडिनम'। अर्थात १८ पुराणों का सार वेद्व्याष के दो वचनों में निहित है , परोपकार ही धर्म और पर पीड़ा ही पाप है।  इसी को तुलसीदासजी ने सहज शब्दों में व्यक्त किया है ' पर हित सरिस धरम नहीं भाई , पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ' इसे समझने के लिए एक उदाहरण लें कुत्ते और बिल्ली में सहज शत्रुता होती है परन्तु पालतू होने पर एक साथ रहते हैं, ऐसे में यदि बिल्ली के बच्चे की माँ बच्चे को जन्म देने के पश्चात मर जाए और उसके बच्चे को कुतिया अपना दूध पिलाए तो यह दृष्य किसी को भी कैसा लगेगा? निश्चित आनन्द देने वाला होगा। यही धर्म है जो प्राणीमात्र के लिए है, इसके लिए जिस भाषा की आवश्यकता पडी, वही धर्म की भाषा है। यदि कुतिया चाहती तो बिल्ली के बच्चे को खा सकती थी यह उसका स्वाभाविक धर्म होता, मांसाहारी पशु का धर्म होता और यही सम्प्रदाय है। उसमें किसी को कोई आनन्द नहीं मिलता अपितु अधिकाँश को पीड़ा ही होती।यद्यपि कुतिया को बिल्ली के बच्चे को अपना भोजन बनाने में आनंद मिलता, परन्तु स्वयं दुसरे का भोजन बनने में डर लगता, पीड़ा होती इसीलिये यह धर्म नहीं है; मूल धर्म (परोपकार या प्रेम) में केवल आनंद है, परोपकार करने वाले को भी और परोपकारित होने वाले को भी। देश काल या स्वभाव किसी भी कारण से धर्म से हटना ही सम्प्रदाय है। सभी सम्प्रदायों की स्थापना इसी प्रकार हुई है। सम्प्रदाय सर्वमान्य, सर्वकालिक और सार्वदेशिक नहीं होता है। धर्म में कोई झगड़ा नहीं है, झगडा सम्प्रदाय में है।कुछ सम्प्रदायों के अनुयाई दुसरे सम्प्रदाय के लोगों को बलपूर्वक हिंषा या आतंक के दम पर या विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अपने सम्प्रदाय की मान्यताओं को मानने के लिए विवश करना चाहते हैं और इसे पुण्य या धर्म का कार्य मानते है जो जघन्य अपराध है और होना ही चाहिए। यदि यह कुतिया दुसरे शाकाहारी पशुओं को बलात या प्रलोभन देकर मांसाहारी सम्प्रदाय को मानने को विवश करे तो यह जघन्य पाप होगा और संघर्ष का कारण भी। आज हममें से अधिकाँश , उपासना पद्धति को धर्म मान लेते हैं, जबकि धर्म का उपासना पद्धति से कोई लेना देना नहीं है। क्या अंतर पड़ता है हम कौनसी उपासना करते हैं?  किसकी उपासना करते हैं? कैसे उपासना करते है? उपासना करते भी हैं या नहीं करते हैं। अधिकाँश लोगों का मानना है ईश्वर सर्व व्यापी है, अनादि है, अनन्त है, कण कण में व्याप्त है; फिर उसकी उपासना कैसे भी की जाए, कहीं की जाए या न भी की जाए क्या अंतर पड़ता है?तुलसीदासजी ने कहा 'हरि अनन्त हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहु विधि सब सन्ता' अर्थात ईश्वर कण कण में है इसलिए अनन्त रूपों में है, इसीलिये सज्जन लोग उसकी उपासना विविध प्रकार से करते हैं। अब ईश्वर की उपासना किस भाषा में होनी चाहिए? संस्कृत में,हिदी में, अंग्रेजी में, अरबी या फारशी में, वह कौनसी भाषा जानता है? क्या सभी भाषाएँ जानता है? वह इनमें से कोई भाषा नहीं जानता, वह तो मात्र दिल की भाषा जानता है। जिस भाषा को बिल्ली का बच्चा और कुतिया समझती थी, जिस भाषा को तुरंत का जन्मा बच्चा माँ के अंग से लगते ही समझ लेता है। पशु के ऊपर हाथ फेरते ही वह समझ लेता है कि यह हाथ  स्नेह का है या कसाई का है। महान वैज्ञानिक जगदीश चंद वसु ने सिद्ध किया था की कुल्हाड़ी लेकर काटने के लिए आने पर वृक्ष डर जाते हैं, वहीं माली पानी देने आता है तो प्रसन्न  जाते हैं , यही ईश्वरीय भाषा है इसके लिए किसी सांसारिक भाषा की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 'हरि व्यापक सर्वत्र समाना , प्रेम ते प्रगट होयं भगवाना ' अर्थात प्रेम की भाषा ही ईश्वर समझता है, कबीर कहते हैं 'ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ' इसीलिये सभी मत मानते है करुण पुकार करो वह अवश्य सुनेगा। करुण पुकार माने नकली आंसू बहाना नहीं, दिल से चिंतन मनन करना। उसके लिए मंदिर, मस्जिद या चर्च जाने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। 'कर में तो माला फिरे, जीभ फिरे मुख मांहि ; मनवा तो चहुँ दिशि फिरे, यह तो सुमिरन नाहीं'  कुछ मतों में पशु पूजा, पादप या वृक्ष पूजा, जल या नदी, सागर पूजा, पाहन, मूर्ती या पर्वत पूजा का प्रचलन है यहाँ तक की इनमें ईश्वर के मत्स्यावतार, सूकरावतार तक बताए गए हैं जिससे भ्रम होता है। वास्तव में यह इस बात का प्रतीक है कि ईश्वर सामान रूप से सर्वत्र व्याप्त है, तो फिर सभी पशु,पक्षी, जीव-जंतुओं और चराचर में भी वही है जो हम में से प्रत्येक में व्याप्त है, इसलिए वे भी हमारी तरह उसी ईश्वरीय अंश से आलोकित हैं।  उपासना का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है और धर्म का पालन प्रत्येक मानव को करना ही चाहिए क्यों कि उसके पास बुद्धि है और वह सम्पूर्ण समाज का एक अंग भूत घटक है। 
                 भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं  सृज्याम्य्हम। परित्राणाय साधूनां  विनाशाय  च दुष्कृताम धर्मसंस्थाप्नार्थाय सम्भवामि युगे युगे। अर्थात जब जब धर्म का नाश होता है, इसमें कहीं उपासना पद्धति को नहीं माना है। धर्म याने परोपकाराय, जब लोग परपीड़ा में उद्यत होते हैं अर्थात अधर्म बढ़ता है तब तब धर्म की स्थापना करने सज्जनों की रक्षा करने और दुष्टों को अर्थात आतंकियों, बलात्कारियों या दूसरों को अनायाष पीड़ा पहुचाने वालों का संघार करने या दण्ड देने के लिए मैं प्रगट होता हूँ। अर्थात कृष्ण नहीं अपितु वह जगत नियंता जो जन जन में व्याप्त है किसी भी जीव में अपनी असीमित शक्ति दे देता है फिर चाहे वह मगर हो, सूअर हो, राम हों, कृष्ण हों, बुद्ध हों, महावीर हों, नानक हों, गांधी हों, मुहम्मद साहब हों या ईशा मशीह हों, सबने अपने अपने समय पर आवश्यकतानुसार लोक कल्याण का कार्य किया, भले ही उस समय कुछ बातों में वे मूल धर्म से हटे हों, इसीलिये उनमें से कई का बताया मार्ग अलग सम्प्रदाय बना जो उस समय उपयोगी और आवश्यक था। धर्म का पालन पहले शाषक करे फिर प्रजा को धर्म का अनुशरण करने के लिए विवश करे यही शाषक का कार्य है ; परन्तु जब शाषक ही अधर्मी हो तो महाभारत ही एक मार्ग बचता है। यदि लोग धर्म का पालन करने वाले हो (चाहे ईश्वर को जिस रूप में माने या न माने) तो कोई किसी की अनावश्यक हत्या कैसे करेगा? बलात्कार कैसे करेगा? घूष कैसे लेगा? दलाली कैसे लेगा? डाका कैसे डालेगा? भ्रूण हत्या कैसे करेगा? धर्म को मानने वाला समाज सहज ही अपराधमुक्त हो जाएगा। यदि समाज, राष्ट्र और विश्व, केवल मानव कल्याण ही नहीं अपितु सबका कल्याण चाहते है और अपराधमुक्त विश्व चाहते हैं तो सम्प्रदायों की कट्टरता को त्याग कर धार्मिक (परहित सरिष धरम नहीं भाई) होना ही होगा अन्यथा अशांति और विनाश निश्चित है। 

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

भारत की मरती आत्मा और बढ़ते अपराध

             अनादि काल से भारत की आत्मा आद्ध्यात्म रही है, धर्म रही है।  धर्म से तात्पर्य किसी उपासना पद्धति से नहीं है। उपासना पद्धति धर्म है भी नहीं ; धर्म तो सत्य है, सार्वकालिक है, सार्वदेशिक है, सर्वमान्य है उसमें किसी प्रकार का विवाद नहीं है 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ' अर्थात सब सुखी हों सब सज्जन हों का भाव ही धर्म है। इसमें किसी को कोई विवाद उत्पन्न करने का कोई अवसर ही नहीं है। 'मातृवत पर दारेषु , पर द्रव्येषु लोष्ठ वत। आत्मवत सर्व भूतेषु यः पश्यति सः पंडिता  ' अर्थात दुसरे की स्त्री को माता सामान और दुसरे की संपदा को मिट्टी के समान समझो तथा सभी को अपने सामान ही समझो का भाव ही धर्म है।  इसमें यदि किसी को अपने कुविचारों के कारण आपत्ति होती है तो भी अपने साथ वह ऐसा ही वर्ताव चाहेगा अर्थात यही धर्म है और यही भारत की आत्मा रही है।  बच्चे के गर्भ में प्रवेश के साथ ही माता ऐसे सुविचारों का चिंतन मनन एवं श्रवण करते हुए भावी सन्तति को महान मानवीय गुणों से परिपूर्ण करने के प्रयास में लग जाती थी और शिशु के जन्मोपरान्त लोरियों और लोकगीतों , कहानियों , भजनों द्वारा घुट्टी के साथ उसमें मानवीय श्रेष्ठ गुणों का समावेश प्रारम्भ कर देती थी।  छोटी छोटी कहानियों में बच्चे को माँ , दादी , नानी हर समय स्मरण कराती रहती थी किसी का कितना भी मूल्यवान सामान तुम्हारे लिए तुक्छ है उधर देखो भी नहीं 'रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव' सभी बालिकाएं तुम्हारी बहन जैसी हैं और बालक भाई समान । स्त्री को सम्मान देना और संकट में उसकी सहायता करना ही पुरुषत्व है , वीरता है 'यत्र नार्यस्तु पूजन्ते , रमन्ते तत्र देवता '। दीन दुखियों के लिए प्राणोत्सर्ग कर देना ही धर्म है 'जो लड़े दीन के हेत सूरा सोई ' किसी की ह्त्या पाप है यहाँ तक कि बगैर किसी कारण के चीटी की हत्या भी पाप मानी जाती है और आत्म ह्त्या महा पाप है,'अहिंसा परमो धर्मः ' बालकों ,वृद्धों एवं स्त्रियों का बध जघन्य अपराध माना जाता है ; 'बालक जानि बधऊँ नहि तोही ' इस प्रकार के दुष्कर्म करने वालों को ही राक्षस कहा गया, स्त्रियों के साथ एक साथ कई लोगों द्वारा बलात सम्बन्ध बनाने, उनके नाजुक अंगों को चोट पहुचाने या शिशुओं के साथ यौन सम्बन्ध बनाने या उनकी हत्या करने वालों को म्लेक्छ या पिशाच कहा गया, विदेशी आक्रमणकारियों के आने के पूर्व इस जघन्य पाप के विषय में भारत में कोई सोच भी नहीं सकता था। सेनाएं आपस में युद्ध किया करती थीं परन्तु सामान्य नागरिक पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। ये सेनाएं नागरिकों को नहीं लूटती थीं उन्हें कोई छति नहीं पहुंचाई जाती थी इसी लिए कहा गया 'कोउ नृप होय हमें का हानी ', भारत में जहाँ व्यर्थ की हिंसा का विरोध किया गया वहीं सज्जनों की सहायता के लिए दुष्टों का सँघार करना ईश्वरीय कार्य माना जाता रहा है 'परित्राणाय साधुनाम , विनाशाय च दुश्क्रताम  ' मृत्यु से भयभीत मत हो वह शाश्वत है। यह आत्मा अजर अमर है मरता तो केवल शरीर है, इस प्रकार अमरता का भाव बचपन से उत्पन्न किया जाता था।  कायर और कुकर्मी मनुष्य अपमानित हो कर बार बार प्रतिदिन मरता है परन्तु सदाचारी और पराक्रमी मनुष्य धर्म के लिए मर कर भी अमर रहता है। जितना तुम्हारे पास है उसी में संतोष करो 'संतोषम परम सुखं' या गो धन गज धन बाजि धन सब धन और रतन धन खानि , जब आवै संतोष धन सब धन धूरि सामान ' इक्छाओं का अंत नहीं है उन पर नियंत्रण आवश्यक है। परन्तु पूर्ण मनोयोग से कर्म करना है, फल ईश्वर के आधीन है; इस विचार से असफलता में भी निराशा नहीं होती है। चार पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम मोक्ष को प्राप्त करना ही मानव जीवन है अर्थात धर्म पूर्वक धन कमाना ,संचित करना , धर्म पूर्वक काम की पूर्ति करना अर्थात जीवन में कुछ भी करना उसमें धर्म की प्रधानता रहनी है।  रात्रि होने पर पौधों को मत छुओ वो सोते हैं , पौधों को मत सताओ , कच्चे फलों को मत तोड़ो हरे पेड़ों को मत काटो  उनमे जीवन होता है इसी दादी नानी की कहानियों को सुन कर महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र वसु ने विश्व को विवश किया यह मानने के लिए कि पौधों में जीवन होता है। जल जीवन है उसकी बर्बादी मत करो , अन्न देवता है, एक भी दाना बर्बाद करना महा पाप है , गंगा सहित सभी नदियाँ जीवन दाईनी हैं माँ के समान है उनकी उपासना करो उन्हें गंदा मत करो। यह सब बच्चों की घुट्टी के साथ उसके रक्त में घोल दिया जाता है। 
          इस सब के लिए शासन से कोई धन राशि आवंटित नहीं होती थी; परन्तु समाज अपराध नियंत्रित था समाज में अपराधियों को हेय द्रष्टि से देखा जाता था।  नदियाँ निर्मल नीरा और स्वक्छ थीं धरा विविध प्रकार की वनस्पतियों से हरी भरी थी। अति गरीब व्यक्ति भी भूखे पेट रह कर भी अपराध या आत्महत्या के विषय में नहीं सोचता था ,ऐसा सोचना भी पाप होता था। अपनी हर स्थिती पर संतोष था। सभी लोग प्रतिदिन सायं कुछ समय धर्म चर्चा को देते थे , राम की पित्रभक्ति  और भरत का भाई के प्रति प्रेम जन जन के ह्रदय में रहता था। हरिशचंद्र का सत्य प्रेम, दधीच का परोपकार , पन्ना धाय की स्वामी भक्ति , हाड़ी रानी का मोह रहित बलिदान , महाराणा प्रताप की घाष की रोटियां खा कर भी दासता स्वीकार न करना , छत्रपति शिवाजी का स्त्री जाति के लिए सम्मान और प्रेम यह सब बच्चों के रक्त में जन्म से ही मिल जाता था ; शाषक जनता का पोषक होता था, उसे ईश्वर का स्थान दिया गया उसके लिए अपना पराया कोई नहीं होता था (अहिल्या बाई होल्कर की न्याय प्रियता विश्व प्रसिद्ध है जिन्होंने अपने ही पुत्र को हाथी से कुचलवा दिया था ) उसे बार बार स्मरण दिलाया जाता था 'जासु राज अति प्रजा दुखारी , सो नृप अवस नरक अधिकारी 'शायद इसी भारत के लिए कहा गया कि ' कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ' ;परन्तु आज हम छद्म धर्मनिर्पेक्छ्ता का लबादा ओड़ कर और पश्चिम का अन्धानुकरण करके वस्तिविक धर्म से बहुत दूर हो गए और अपराध तथा कुकर्म की दुनिया में आकंठ डूब गए हैं। शाषक से लेकर प्रजा तक सभी अपराध में लिप्त हैं , आज सबसे बड़ा अपराधी ही सर्वाधिक सम्मानित है। सचरित्र व्यक्ति उपेक्षित और उपहास का पात्र है। माता पिता और शिक्षक नैतिक मूल्य बढ़ाने के स्थान पर अर्थोपार्जन पर जोर देते हैं। विनम्रता के स्थान पर अहंकार बढाया जा रहा है। 'मात पिता बाल्कान्ह्ही बुलावईं उदर भरै सो नीति सिखावहीं ' आज घरों में धर्म चर्चा होने के स्थान पर षड्यंत्रों, हत्याओं और बलात्कारों से युक्त टी वी सीरियल देखे जाते हैं। विभिन्न विज्ञापनों में उत्तेजना पूर्ण नारी योवन परोसा जाता है। बचपन से कार्टून सीरियलों में बच्चों को उद्दंड , अवज्ञाकारी और असहनशील बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। आज हमारे आदर्श और प्रेरणा श्रोत बदल गए हैं धन महत्वपूर्ण हो गया है , फिर चाहे किसी भी मार्ग से अर्जित किया जाय, इसीलिये  सचरित्र, राष्ट्रभक्तों,श्रेष्ठ महापुरुषों के चित्रों के स्थान पर घरों में फूहड़ द्विअर्थी संवादों और उत्तेजना पूर्ण अंग प्रदर्शन करने वाले गीतों पर नृत्य और अभिनय करके जीविका चलाने वालों के चित्र लगाते हैं। प्रातः कोई संत वाणी या सचरित्र्ता की बात सुनने या गुनगुनाने के स्थान पर 'चोली के नीचे क्या है ' जैसे फूहड़ गीत सुनते और गाते हैं। बगैर विवाह के एक या एक से अधिक लोगों से शारीरिक सम्बन्ध रखने वालों को वेश्या कहा जाता है। क्या हमारे समाज में इस प्रकार का चलन नहीं बढ़ा है और ऐसे लोगों का सम्मान नहीं बढ़ा है ? यह दुर्भाग्य पूर्ण है। ऐसी स्थिति में  हम हजार प्रयाष कर लें लाखों क़ानून बना लें कोई सुधार होने वाला नहीं है। जब तक शाषक शुद्ध आचरण और नैतिकता से पूर्ण नहीं होंगे तथा घरों और विद्यालयों में अद्ध्यात्मिक तथा नैतिक वातावरण नहीं बनेगा अभिभावकों सहित शिक्षकों को नैतिकता की ओर कदम बढ़ा कर बच्चों में धर्म और नैतिकता के मूल्य उत्पन्न करने ही होंगे अन्यथा अपराध बढ़ते ही जाएंगे। 
              यदि लोक कल्याण करना है समाज को अपराधमुक्त करना है और चरित्रवान राष्ट्र का निर्माण करना है तो उन उच्च नैतिक एवं आद्ध्यात्मिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना ही होगा जिन्हें हम भौतिकवादी पूंजीवादी व्यवस्था में दकियानूसी और साम्प्रदायिक बता कर छोड़ चुके हैं । 

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

दुर्घटना , दलाली या षड्यंत्र

                 भारत के ६७ वें स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पूर्व जिस प्रकार अचानक दो सैनिक पनडुब्बियों में आग  गई और उनमें से एक सिन्धुरक्षक न केवल नष्ट हो गई अपितु साथ में नौ सेना के १८ बहादुर अधिकारी और सैनिक शहीद हो गए वह राष्ट्र के लिए हताशा भरा रहा सम्पूर्ण राष्ट्र स्तब्ध रह गया, किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया।  जहाँ एक दिन पूर्व विक्रांत के जलावतरण का उल्लास मना रहे थे इस दुखद सूचना ने हर्ष और उत्साह पर तुषारापात कर दिया।  प्रश्न यह उठता है कि क्या एक साथ दो पनडुब्बियों में अचानक आग लग जाना वह भी विक्रांत के जलावतरण और स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पूर्व , क्या मात्र एक दुर्घटना थी या कुछ और ? इस राष्ट्र में प्रारम्भ से ही रक्षा सौदों सहित सभी सौदों  में मंत्रियो ,नेताओं और अधिकारियों द्वारा दलाली ली जाती रही है ; यहाँ तक की प्रधानमंत्री का नाम भी इस प्रकार की दलाली में आता रहा है।  जब कोई कम्पनी करोड़ों रु की दलाली देगी तो क्या निम्न गुणवत्ता का सामन नहीं दे सकती और यदि ऐसा हुआ है तो उसकी जाँच कौन करेगा ? इतिहास गवाह है तमाम सौदों की दलाली की जाँच का आडम्बर किया गया परन्तु परिणाम क्या निकला ? किसको दोषी पाया गया ? इस प्रकार दलाली ले कर कम गुणवत्ता का सैन्य सामान लेना न केवल जघन्य अपराध है अपितु देशद्रोह भी है और उसके लिए मंत्री से लेकर संत्री तक सभी दोषी हैं। यह कार्य किसी एक या दो व्यक्तियों का नहीं है , अपितु पूरा का पूरा तंत्र इस देशद्रोह में सम्मिलित हैं। अपनी जेब में कुछ करोड़ रु आगये सैनिक मरें तो मरें , उन शहीदों के परिवारों को कुछ  लाख रु देकर और घडियाली आंसू बहा कर कर्तव्य मुक्त हो जाएंगे क्यों कि उनको तो शहीद होने के लिए ही वेतन मिलता है, ऐसा राजनेताओं का मानना है । क्या इन दोनों पनडुब्बियों में अचानक आग लगाना, कम गुणवत्ता के कल पुर्जे लगे होना हो सकता ?
                 यदि ऐसा नहीं है तो क्या यह आतंकवादियों और देह्द्रोहियों द्वारा रचा षड्यंत्र हो सकता है। इतनी सुरक्षित जगह पर कोई बाहरी व्यक्ति कैसे पहुँच सकता है वैसे भारत में किसी बाहरी षड्यंत्रकारी की आवश्यकता ही नहीं है जब संसद से लेकर सड़क तक देशद्रोहियों की भरमार है।  बोफोर्ष दलाली का अपराधी क्वात्रोची किस प्रकार भारत से सुरक्षित न केवल निकल गया अपितु उसका बैंक खाता भी चालू कर दिया गया और तो और उसके विरुद्ध मुकदमा भी वापस ले लिया गया।  इस राष्ट्रद्रोह पूर्ण कार्य में क्या पूरा तंत्र सम्मिलित नहीं था ? इसी प्रकार भोपाल गैस त्रासदी का अपराधी एंडर्सन भारत से किस प्रकार सुरक्षित निकल गया ? क्या इसमें सत्ता के सर्वोच्च शिखर से लेकर नीचे तक सभी मिले नहीं थे ? बहुत ही लज्जा की बात है कि इस राष्ट्र की बागडोर दलालों और देशद्रोहियों के पास है , जो आतंकवादियों की म्रत्यु पर तो फूट फूट कर रोते हैं और आतंकवादियों के द्वारा मारे गए जांबाज अधिकारियों की शहादत पर संवेदना व्यक्त करना तो दूर , उसे अपमानित करते हुए उस मुटभेड को ही फर्जी बताने में लज्जा का अनुभव नहीं करते। क्या ऐसे आतंकवाद समर्थित देशद्रोहियों के रहते ऐसे हादसे फिर नहीं होंगे। 

बुधवार, 14 अगस्त 2013

बोया पेड़ बबूल का

              यद्यदाचरति श्रेष्ठ्स्तत्तदेवेतरो जनः, स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्त्दनुवर्तते।  अर्थात जैसा श्रेष्ठ लोग करते हैं उसी का अनुकरण लोग करते  हैं। भारत को स्वतंत्र हुए 66 वर्ष हो रहे हैं; यह दुर्भाग्य है कि स्वतन्त्रता के पश्चात से ही यहाँ के सत्ताधीशों का शनै: शैने: नैतिक और चारित्रिक पतन होना प्रारम्भ हुआ तो उसे रोकने के कोई उपाय नहीं किये गए।  कुछ हजार रु की चोरी से प्रारम्भ हुआ यह सफर लाख करोड़ के घोटालों तक जा पहुंचा, इतना ही नहीं अधिकाँश माननीय हत्या, बलात्कार, आगजनी जैसे घ्रडित अपराधों में लिप्त हैं, यहाँ तक कि राष्ट्र के प्रधानमंत्री के मुख पर भी कालिख पुती हुई है, शायद आज एक भी राजनेता इमानदार और चरित्रवान नहीं है तभी तो इनके विरुद्ध होने वाली जांचों को ये निर्लज्ज लोग बदलवाने का प्रयास करते हैं, तब भारत के उच्चतम न्यायालय को भी दु:खी होकर कहना पड़ा की जांच की मूल आत्मा ही मार दी गई है। इन भ्रष्ट और दुष्चरित्र नेताओं के दुराचरण पर रोक लगाने का प्रयास न्यायालय करता है तो सभी लाम बंद हो कर अपनी सामर्थ्य का दुरूपयोग कर न्यालय को पंगु बनाने का कार्य करने में भी शर्म नहीं करते है।  इन्होने चारों ओर लूट मचा रखी है। संसद और विधान सभाओं में वही कार्य होते हैं जिनमें इन्हें मोटी दलाली मिल सके फिर चाहे सेना के हथियारों की खरीद हो, गरीबों को भोजन या चिकत्सा हो, किसी नौकरी का चयन हो या स्थानान्तरण सब में खुला पैसा चलता है। यदि कोई चरित्रवान अधिकारी इन गुंडों और अपराधियों पर कानूनी शिकंजा कसना चाहता है तो या तो उसकी हत्या हो जाती है या स्थानांतर अथवा निलंबन हो जाता है।  यह सब कुछ बहुत ही भयावह है; इनके इस आचरण से जन सामान्य में धारणा बनती जा रही है कि प्रजातंत्र के मंदिर संसद और विधान सभाएं अपराधियों और राष्ट्रद्रोही दलालों के सुरक्षित अड्डे बन गए हैं।  आज ऐसा लगता है यह जनता के द्वारा, जनता के लिए जनता की सरकार ना होकर ; अपराधियों के लिए अपराधियों की सरकार है। इनके भ्रष्ट आचरण के  विरुद्ध न्यायालय के निर्णय को मानते नहीं, न्यायोचित शांतिपूर्ण अहिंसक जन आन्दोलन को लाठी और गोली द्वारा कुचल देते हैं, तर्क देते है हम चुने हुए जन प्रतिनिधि हैं यदि कुछ जनता के लिए करना चाहते हो तो चुनाव लड़ कर आओ, क्या भारत की सवा सौ करोड़ जनता चुनाव लडेगी ? जब सुधार के सभी मार्ग कोई दुराचारी बंद कर दें तो जनता के पास हिंसा के अतिरिक्त कौनसा मार्ग बचता है ?
           आज इन श्रेष्ठ दुराचारियों के दुराचरण का सामान्य जनता अनुसरण कर रही है।  पूरे देश में लूट हत्या बलात्कार का बोलबाला है , माताओं बहनों का घर से निकलना दुष्वार हो गया है, चारों और आतंक ही आतंक है राष्ट्र भक्तों को जेल में डाला जा रहा है, आतंकियों और देशद्रोहियों को महिमा मंडित किया जा रहा है , वीर जवानों और सिपाहियों के बलिदान पर शक किया जा रहा है। इन राष्ट्र द्रोहियों के रहते देश की सीमाएं असुरक्छित हैं।  क्या ऐसे में स्वतंत्रता का उत्सव मनाया जा सकता है ? हाँ माननीय तो मनाएँगे क्यों कि उन्हें हर प्रकार के अपराध करने की स्वतन्त्रता है लेकिन जन सामान्य को भूख से मरने की, हर प्रकार के अत्याचार सहने की बीमारी और आतंक से घुट घुट कर मरने की विवशता है। कहाँ है स्वतंत्रता ? यह राष्ट्र पर्व उल्लास मनाने का नहीं अपितु चिंतन करने का है कि कैसे इन दुराचारियों और अपराधियों से राष्ट्र मुक्त हो और इसकी बागडोर विदेशी चाटुकार दुष्चरित्र हाथों से हट कर चरित्रवान एवं देशभक्त हाथों में आए।