सोमवार, 19 मई 2014

जन को जोड़ता तंत्र

१५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के बाद भारत के राष्ट्र नायकों ने जनतंत्र का मार्ग चुना, जिसका तात्पर्य था जनता की सरकार, जनता द्वारा, जनता के लिए. विचार अच्छा था भारत का जनमानस यह सोच कर अभिभूत था कि अब भारत में उसकी अपनी सरकार होगी, चोर उचक्कों से उसकी रक्षा होगी, अब उसे लूटा नहीं जाएगा, उसे भर पेट भोजन, तन ढकने को वस्त्र और सिर छुपाने के लिए एक छत होगी. उसकी बहन बेटियों की इज्जत, जो अंग्रेजों के राज्य में सुरक्षित नहीं थी अब सुरक्षित होगी. बस यही छोटी छोटी सी इक्षाएं थीं और इन्ही इक्षाओं को पूरा करने के लिए उसने बलिदान दिए थे. लेकिन स्वतंत्रता के तत्काल बाद पता लगा वे सब सपने थे, देश गोरे साहबों के हाथ से निकल कर काले साहबों का गुलाम हो गया था, भारत के जन का बलिदान व्यर्थ चला गया था, वह ठगा गया था. इस स्वतंत्र भारत में जन और तंत्र अलग अलग रहा, आजादी के प्रारम्भ के दिनों में सत्ता की डोर जिस दल के हाथ में थी उसका नाम भी कांग्रेस था, वही कांग्रेस जिसने भारत की स्वतंत्रता और उसके विघटन में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी, स्वतंत्रता के पश्चात गांधीजी ने कहा था अब कांग्रेस को समाप्त कर देना चाहिए, और भारत पर शाषन करने के लिए नए दल का गठन किया जाना चाहिए, लेकिन गांधी के अनुयायिओं को यह परामर्श उचित नहीं लगा, क्योंकि कांग्रेस से सामान्य जन के भावनात्मक लगाव का दोहन कर, तत्कालीन प्रधानमन्त्री निरापद शाषन करना चाहते थे, और उन्होंने किया भी. उसी समय से भारत के शाषक जन से दूर होते चले गए और लोगों का जनतंत्र में कोई उत्साह नहीं रहा इसी लिए उस समय मतदान प्रतिशत ५०% से काफी कम रहता था और मात्र २०% मत पाने वाला दल सरकार बना लेता था जो भारत के ८०% को स्वीकार्य नहीं होती थी, जनता की नजरों में नेताओं का सम्मान गिरता चला गया, उनके लिए कोई भी भद्दी से भद्दी गाली भी छोटी लगने लगी, नेता जनता से दूर होते चले गए, क्योंकि वे जनता के प्रतिनिधि थे ही नहीं, वे तो अंग्रेजों की जगह नए ठग और लुटेरे थे, जनता की समस्याएं दासता के दिनों से भी अधिक दुष्वार हो गईं थी, और नेता लूट खसोट में मस्त थे. जन की इन नेताओं के प्रति नफरत बढ़ती चली जा रही थी, इसका प्रमाण है, जब १९७७ में श्रीमती गांधी ने आपातकाल लगा कर सभी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया था, तो आक्रोशित होने के स्थान पर जनता संतुष्ट थी; यदि लोगों की जबरदस्ती नसबंदी नहीं की गई होती तो इन जेल में बंद नेताओं के जीवन की परवाह किये बगैर जनता दोबारा श्रीमती गांधी को ही चुनती; क्योंकि अब ५४३ लुटेरों के स्थान पर एक ही लुटेरा बचा था, यह एक कडवा सच है. इसी प्रकार जब संसद भवन पर आतंकी हमला हुआ था तो भारत का जन जन आक्रोशित था, भारत की अस्मिता पर हुए इस आक्रमण पर, लेकिन शायद बहुत कम लोग रहे होंगे जो नेताओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित हुए होंगे.
 भारत में प्रारम्भ से ही निरंतर सत्ता में बने रहने के मोह में हमारे राष्ट्रनायकों ने जनता की भलाई का कार्य न करते हुए, जनता को भिन्न भिन्न समूहों में बाँट कर उनमें वैमनस्यता फैला कर अपना वोट बैंक बनाने का कार्य किया, कभी अनुसूचित जाति के नाम पर, तो कभी अगड़ों के नाम पर, कभी पिछड़े, तो कभी अति पिछड़े, कभी अल्पसंख्यक, तो कभी बहु संख्यक के नाम पर, कभी मंडल, तो कभी कमंडल, और उसका परिणाम हुआ चुनावों में खंडित जनादेश, जिसके परिणाम स्वरूप छोटे छोटे राजनैतिक दल मिलकर सत्ता चलाते और मनमानी लूट को अंजाम देते, जिससे महगाई और भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा था, घोटाले कुछ लाख रूपये से बढ़ कर लाख करोड़ तक पहुँच गए, और सामान्य जन गरीबी लाचारी में निरीह भाव से पिस रहा था. आधी से अधिक आबादी को दो वक़्त का भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं, अपनी लज्जा को ढकने के लिए वस्त्र नहीं, रोगी को उपचार नहीं, बच्चों को शिक्षा के लिए विद्यालय नहीं, बहन बेटियों की अस्मत सड़कों पर, सार्वजनिक स्थलों, कार्यालयों, तथा घर में भी सुरक्षित नहीं, न्याय के मंदिर और शिकायतें सुनने के स्थान भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए. जनता दासता के दिनों से भी बुरे दिनों को काटने को विवश और नेता अरबों रुपये की चोरी करके विभिन्न प्रकार के निकृष्ट अपराध करते हुए विशेष सुरक्षा दस्ते के साथ अय्याशी में लिप्त थे. ये दुष्ट इस राष्ट्र पुरुष के समग्र जन को निज स्वार्थ में टुकड़ों टुकड़ों में बाँट कर सत्ता का आनंद खंडित जनादेश से उठा रहे थे. भारत की जनता अत्यधिक संवेदनशील और संतोषी है, जब भी तंत्र ने जन को विश्वास में लिया है भारत के जन ने उसे खुले दिल से समर्थन दिया है. लाल बहादुर शास्त्री ने जनाकांक्षाओं को कुछ हद तक समझा था और संकट काल में एक दिन मंगलवार को एक समय भोजन स्वयं न करते हुए समग्र राष्ट्र से न करने का आग्रह किया था, घरों की बात तो छोडिये, होटल भी एक समय बंद रहते थे, ऐसा अभूतपूर्व समर्पण है भारत के जन का, इसमें अगड़े,पिछड़े,सूचित,अनुसूचित,अल्पसंख्यक,बहुसंख्यक का भेद नहीं था. सम्पूर्ण राष्ट्रपुरुष अपने राष्ट्रनायक के एक आवाहन पर त्याग और बलिदान के लिए तत्पर था.

श्रीमती गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया, उन्हें स्पष्ट और प्रचंड बहुमत मिला, कारण गरीबी सब की एक जैसी होती है. जब भूख लगती है तो वह सवर्ण और हरिजन में, अगड़े – पिछड़े में, हिन्दू और मुसलमान में भेद नहीं करती है, भूख सब को एक जैसी लगती है, जब बच्चों को भरपेट भोजन नहीं दे पाती तो हर माँ के ह्रदय में एक जैसी वेदना और लाचारी होती है. जब चिकित्सा के अभाव में किसी का बच्चा या आत्मीयजन मर जाता है तो पीड़ा सभी को एक जैसी होती है. जाड़े की ठिठुरन भरी रातों में जब तन पर पर्याप्त वस्त्र नहीं होते तो ठंड की पीड़ा सभी को एक जैसी होती है. युवा होती पुत्री को लज्जा ढकने योग्य वस्त्र भी जब माता-पिता नहीं उपलब्ध करा पाते तो हिन्दू और मुसलमान की पीड़ा में कोई अंतर नहीं होता, जब सड़कों, सार्वजनिक स्थलों और पुलिस थानों पर युवती की अस्मत लुटती है तो जो पीड़ा और गुस्सा फूटता है, वह सभी में सामान होता है और इन अय्याश नेताओं के प्रति नफरत भी वैसी ही होती है. श्रीमती गांधी ने इस पीड़ा को समझा था और जन की समस्या गरीबी दूर करने की बात कर जन को स्वयं से जोड़ने का प्रयास किया, जिसका परिणाम स्पष्ट बहुमत था, इन्द्राजी के पश्चात सभी दल जन से दूर होते चले गए. कोई अल्पसंख्यकों को भयभीत कर रहा था, तो कोई उन्हें चार निकाह की अनुमति दे रहा था, कोई तिलक तराजू और तलवार ... कह कर समाज में नफरत और दरार पैदा कर रहा था, कोई राम मंदिर और धारा ३७० का राग अलाप रहा था, ऐसे में जन से दूर इस तंत्र का जो हस्र होना चाहिए था वही हुआ, निरंतर खंडित जनादेश मिला और अल्पमत सरकारों को चलाए रखने के लिए आँख बंद कर खुली लूट होने दी गई. २०१४ के चुनाव में मोदीजी ने इस समस्या को समझा और जनता के मध्य जन जन से जुड़े मुद्दे ‘भय, भूख, भर्ष्टाचार’ के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की घोषणा कर दी और जन, तंत्र के साथ स्वःस्फूर्त जुड़ता चला गया, जिसका परिणाम ये चुनाव परिणाम हैं. अब देखना ये है कि जन कहीं फिर ठगा अनुभव न करे.