गुरुवार, 24 मार्च 2016

लोकतन्त्र के मंदिर


विश्व की प्रत्येक सभ्यता में एक ऐसे पवित्र उपासना स्थल की कल्पना की गई है, जहाँ साक्क्षात ईश्वर का वास होता है, और यहाँ किसी भी प्रकार का अनैतिक कार्य करना वर्जित है, और यदि उस उपासना स्थल पर किसी से कोई अनैतिक कृत्य हो ही जाय, तो उसे दण्डित करना और उस स्थान को पुनः पवित्र कर उस ईष्ट की पुनः प्राण प्रतिष्ठा करना आवश्यक है अन्यथा वह स्थान अपवित्र एवं अपूज्य माना जाता है, लगभग सभी सभ्यताओं में इस प्रकार की परिपाटी है | भारत में इसे मंदिर कहा गया है; मंदिर में प्रगट या अप्रगट रूप से उस समुदाय के आराध्य का स्थान होता है | एक लम्बी दासता के उपरान्त जब भारत बाह्य शक्तियों की दासता से मुक्त हुआ, तब यहाँ २६ जनवरी १९५० को गणतंत्र की स्थापना की गई, और लोकसभा, राज्यसभा, विधान सभा आदि के रूप में लोकतंत्र के नए मंदिरों की स्थापना हुई, जिनमें लोकतंत्र के संविधान की पवित्रता को बनाए रखते हुए, जनहित के कार्यों का निष्पादन पूर्ण निष्ठां एवं ईमानदारी से हो ऐसी अपेक्क्षा की गई है | इन मंदिरों में जनता द्वारा चयनित निष्ठावान, चरित्रवान, राष्ट्रभक्त, आ सकें ऐसी व्यवस्था की गई थी; कोई अपराधी, विक्षिप्त या राष्ट्रद्रोही इन मंदिरों की पवित्रता को नष्ट न कर सके इसकी भी व्यवस्था की गई थी | प्रारम्भ में इन मंदिरों में पूर्ण निष्ठां एवं ईमानदारी के साथ जनहित के कार्य होते हुए दिखाई भी दिए; परन्तु कुछ अंतराल के पश्चात ही यहाँ चयनित होकर आने वाले जनप्रतिनिधियों पर सत्ता का ऐसा मद चढने लगा कि शनै: शनै: उन्होंने किसी भी प्रकार सत्ता सुख भोगते हुए, तमाम तरीके के अनैतिक कार्यों को यहाँ से निष्पादित करना प्रारम्भ कर दिया, और तो और सर्वथा अयोग्य, भृष्ट, एवं अपराधी लोग भी विभिन्न प्रकार के अनुचित साधनों द्वारा यहाँ चयनित हो कर आने लगे | आज ये मंदिर जनतंत्र की उपासना के योग्य न रहकर, विभिन्न प्रकार के अपराधियों के सुरक्षित अड्डे बन चुके हैं |  स्थान कितना भी पवित्र हो; यदि उस स्थान में अपराधी और व्यभिचारी अपना अड्डा बना लें, तो उस स्थान की पवित्रता को पुनर्स्थापित करने के लिए उन अपराधियों को निकालना आवश्यक है, फिर चाहे इसके लिए उस स्थान को ही क्षति पहुंचानी पड़े |
३१ अक्टूबर १९८४ को भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंद्रा गांधी की नृशंश हत्या के पश्चात, जिस प्रकार ३ नवम्बर १९८४ तक सम्पूर्ण राष्ट्र में खुले आम सरकार समर्थित गुंडों द्वारा सिक्ख समुदाय का कत्ले आम किया गया, उन्हें जिन्दा जलाया गया, उनकी महिलाओं के साथ पहले अनाचार फिर हत्या कर जला दिया गया, उनके घरों-दुकानों को लूटा गया, जलाया गया, सरकारी आंकड़ों के अनुसार २८०० से अधिक लोगों की हत्या कर दी गई थी, जिसमें से २१०० से अधिक लोग केवल दिल्ली में मारे गए थे | सरकारी सुरक्क्षा बल अपने सामने यह सब न केवल होने दे रहे थे, अपितु स्वयं लूट में सम्मिलित थे, तथा सरकार समर्थित उन गुंडों और हत्यारों का सहयोग भी कर रहे थे; इन गुंडों और हत्यारों में कई उस समय जन प्रतिनिधि भी थे | आज इस घटना को हुए ३० वर्ष से अधिक हो गए; परन्तु किसी भी ऐसे जनप्रतिनिधि को, जो इस हत्या काण्ड में सम्मिलित था, अभी तक कोई दंड नहीं दिया गया है, दण्डित करना तो बहुत दूर की बात है ‘ जब कोई बड़ा पेड गिरता है, तो धरती कांपती है’ कह कर इस नरसंघार को समर्थन देने वाले को भारत रत्न से सम्मानित कर दिया जाता है; तब भी इन लोकतंत्र के मंदिरों में बैठने वाले सभी प्रतिनिधियों का एक ही उत्तर होता है, कोई बख्शा नहीं जाएगा और क़ानून अपना कार्य करेगा |
इसी प्रकार २-३ दिसंबर १९८४ की रात्रि को भोपाल स्थित युनियन कार्बाइड के कारखाने में दुर्घटना घटी और उस त्रासदी में पहले चार-पांच दिनों में ८००० से अदिक लोग काल के गाल में समा गए, एक माह से कुछ अधिक व्यतीत होते होते ८००० से अधिक और कालकलवित हो गए, बीसों हजार लोग विभिन्न प्रकार की गंभीर बीमारियों से ग्रसित होकर भयंकर पीड़ा झेलते हुए, मृत्यु की प्रतीक्षा करने को विवश थे | ऐसे में उस कारखाने के मालिक वारेन एंडरसन को पकड़ कर इन लोगों को समुचित मुआवजा दिलवाना, जो अनाथ हो गए थे उनके भविष्य के जीवनयापन की समुचित व्यवस्था करवाना, जो गंभीर रोगों से पीड़ित हुए थे, उनके निःशुल्क समुचित उपचार की व्यवस्था करवाना, उस समय की सरकार का उत्तरदायित्व था; परन्तु वैसा कुछ भी नहीं हुआ; अपितु उसे पूर्ण सुरक्षित मार्ग दे कर यहाँ से पलायन करवा दिया गया | इसके पश्चात कई बार सरकारें बदलीं लेकिन, मानवता के दुश्मन इन अपराधियों पर किसी प्रकार की कोई कार्यवाही ३० वर्ष से अधिक का समय बीत जाने पर भी आज तक नहीं हुई | इस प्रकार हम देखें तो तमाम अपराधों में इन तथाकथित लोकतंत्र के मंदिरों में बैठने वाले सभी जनप्रतिनिधि बराबर के अपराधी हैं; अतएव यह सुनिश्चित होता है कि ये लोकतंत्र के मंदिर नहीं अपितु गंभीर अपराधियों के अड्डे बन गए हैं |
अभी अभी कुछ दिनों पूर्व पता चला कि जनता की गाढी कमाई का केवल सरकारी बैंकों का साढ़े तीन लाख करोड़ से अधिक धन एन.पी.ए. है; जिसके वापस आने की संभावना नहीं के बराबर है | इसके अतिरिक्त बी.जे.पी. समर्थित एक राज्यसभा सांसद विजय माल्या सरकारी बैंकों का ९००० करोड़ से अधिक धन लेकर २ मार्च २०१६ को सुरक्क्षित भारत से सफलता पूर्वक भाग गया या भगा दिया गया और अब उसे वापस पकड कर लाने का दिखावा कर उसी प्रकार जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है, जैसा कि ललित मोदी के मामले में बनाया गया था | यह तो सरकारी बैंकों के आंकड़े हैं; यहाँ कम से कम आम जनता का धन डूबा तो नहीं है, सरकार उसे वापस करेगी ऐसी अपेक्षा है | परन्तु उन निजी बैंकों, चिटफंडो और सहकारी बैंकों का क्या ? जिनसे हजारों करोड़ का उधार इन माननीयो एवं अन्य प्रभावशाली लोगों ने लिया; परन्तु वापस करने से इनकार कर दिया | उसके पश्चात उनका पंजीकरण भारतीय रिजर्व बैंक ने निरस्त कर दिया | इस प्रकार के उधार में रिजर्व बैंक के अधिकारी, उस बैंक के अधिकारी तथा प्रभावशाली उधार लेने वाले ये आर्थिक अपराधी मिले हुए होते हैं और सामान्य जनता का पैसा हजम कर जाते हैं | पहले रिजर्व बैंक के भृष्ट अधिकारी इन बैंकों, चिटफंडो को लाइसेंस देने में मोटी रकम खाते हैं; आम जनता समझती है कि ये बैंकें, रिजर्व बैंक एवं भारत सरकार की निगरानी में कार्य कर रहीं हैं अतएव उनका धन उतना ही सुरक्क्षित है, जितना सरकारी बैंकों में; परन्तु घोटाला होने के पश्चात पता चलता है कि इन सभी संस्थाओं की जिम्मेदारी केवल कमीशन खाने तक थी; और जनता की जीवन भर की गाढी कमाई एक झटके में डूब जाती है | अपना स्वयं का धन होने पर भी, जमाकर्ता एक एक पैसे को मोहताज होकर, खून के घूँट पीकर रहने को विवश होता है; और ऋण लेने वाले ये माननीय इन तथाकथित मंदिरों में सुरक्षित बैठ कर राष्ट्र भक्ति, ईमानदारी आदि की बड़ी बड़ी बातें करते हैं | यदि किसी फलदार वृक्ष में कीड़े लग जाएं और सभी फलों को चट कर जाएं, तो एक एक कीड़े को नहीं मारा जाता है, अपितु पूरे वृक्ष पर ही कीटनाशक का छिडकाव करना पड़ता है | आज ऐसी ही स्थिति इस लोकतंत्र के वृक्ष की हो गई है, जिसमें जनता को मिलने वाले फल को, ये जनप्रतिनिधि, बड़े भृष्ट व्यापारी और बड़े माफिया मिलकर खा जा रहे हैं |
१३ अप्रैल १९१९ को अमृतसर के जलियाँ वाला बाग़ में शांतिपूर्ण ढंग से सभा कर रहे; निहत्थे लोगों पर जनरल डायर ने गोलियां चलवा दी थीं | जिसमें १५२६ से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी और ११०० से अधिक घायल हुए थे; उन मरने वालों में अमर शहीद ऊधम सिंह के पिता भी थे; लगभग २१ वर्ष पश्चात इंग्लैंड के कैक्सटन हाल में १३ मार्च १९४० को अपने पिता की मृत्यु का बदला लेते हुए, ऊधम सिंहजी ने १५२६ लोगों के हत्यारे जनरल डायर को गोलियों से भून दिया था | आज ३० वर्ष से अधिक व्यतीत होने पर भी सिक्खों के हत्यारे उन माननीयों का बाल भी बांका नहीं हुआ, इसी प्रकार भोपाल त्रासदी के अपराधियों को किसी प्रकार का दंड दिलवाने का अभी तक कोई प्रयाष ही नहीं किया गया है | लाखों लोगों की खून-पसीने की कमाई ये अपराधी हजम कर गए; ऐसे में जिनको किसी प्रकार की त्रासदी से नहीं गुजरना पड़ा है, और इस व्यवस्था की लूट का अंग बने हुए हैं; वे निश्चित राष्ट्र भक्ति की बड़ी बड़ी बातें कर सकते हैं; परन्तु जिनका सब कुछ इन अपराधियों ने लूट लिया है, और तीस वर्ष पश्चात भी कहीं से न्याय की आश नहीं है उन्हें तो निरंतर प्रतीक्षा रहेगी एक ऊधम सिंह की, जो इन हत्यारों से अगणित हत्याओं का बदला ले सके, एक भगत सिंह की जो इन बहरे कानों को सुनाने के लिए इन अपराधी अड्डों पर धमाके कर सके |

इस लोक सभा चुनावों के पश्चात स्वतंत्र भारत में प्रथम बार एक सांसद (श्री नरेन्द्र मोदी ) ने लोकतंत्र के मंदिर के बाहर सीढ़ियों पर बैठ कर पहले प्रणाम किया, फिर मंदिर में प्रवेश किया और आज वे ही इस सरकार के मुखिया भी हैं; उनसे लोक को बहुत आशा एवं अपेक्षाएं हैं, कि वे पुनः इस मंदिर की पवित्रता को स्थापित कर सकेंगे, और बगैर भेद-भाव के सभी अपराधियों को उचित दंड दिलवाने की व्यवस्था करेंगे | अन्यथा .......

मंगलवार, 1 मार्च 2016

अनैतिक

अनैतिक
९ फरवरी २०१६ को जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में जो कुछ हुआ, निश्चित वह घोर अनैतिक था | प्रषाशन के अनुसार उस दिन वहां की क्षात्र युनियन ने संसद पर हमले के दोषी अफ्जलगुरू की फांसी की वर्षगाँठ पर विरोध मनाते हुए यूनिवर्सिटी प्रांगण में घोर आपत्ति जनक राष्ट्रविरोधी नारे लगाए, जिसके अपराध में कन्हैया, खालिद आदि को राष्ट्रद्रोह के आरोप में बंदी बना लिया गया | इसके पूर्व इसी प्रकार की घटना हैदराबाद यूनिवर्सिटी में हुई थी, जिसमें पी.एच.डी. के क्षात्र रोहित और उसके साथियों को राष्ट्रविरोधी नारे लगाने के आरोप में दण्डित किया गया था, बाद में रोहित ने आत्महत्या कर ली थी | इन सभी घटनाओं ने मन को उद्वेलित कर दिया था, कि क्या वास्तव में ये उच्च शिक्षा के मंदिर राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए हैं ? या बीमारी कुछ और हे, और ये लक्षण मात्र हैं |
कोई भी कृत्य, चाहे वह नैतिक हो या अनैतिक, कुकृत्य हो या सत्कृत्य, अनाचार हो या सदाचार, दुष्कर्म हो या सत्कर्म, पाप हो या पुण्य, राष्ट्रद्रोह हो राष्ट्रवंदन तीन प्रकार से ही किया जाता है और किया जा सकता है    १. मन से            २. वचन से         ३. कर्म से
कोई भी कृत्य पहले मन से, फिर वचन से अर्थात वाणी से और फिर कर्म से अर्थात कार्य रूप में परिणित किया जाता है | लेकिन यह नि:तांत आवश्यक नहीं कि जो मन से किया जाय, वही वचन से भी किया जाए और कर्म से भी किया जाए, अर्थात कोई व्यक्ति मन से कुछ, वचन से कुछ, तथा कर्म कुछ और कर सकता है | किसी के मन में क्या चल रहा है, यह समझ पाना शायद अति दुष्कर है; परन्तु वाणी और कृत्य ही प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं | यदि कोई व्यक्ति वचन से सत्कर्म की बड़ी बड़ी बातें करे, और कर्म घोर अनैतिक एवं निंदनीय हों (जैसा कि कई उपदेशकों, राजनेताओं, का देखने में आया है), तो उसे सत्कर्मी कहेंगे या दुष्कर्मी ? कुछ लोग ऐसे भी मिलते है, जिनके मुख से सदैव अभद्र भाषा ही निकलती है, लेकिन निश्छल ह्रदय एवं अति सदाचारी होते हैं | यदि राष्ट्रद्रोह के नारे लगाने वाले ये क्षात्र राष्ट्रद्रोही हैं, तो सत्ता में बैठे वे राजनेता, जो राष्ट्रप्रेम पर लम्बे लम्बे व्यक्तव्य देते हैं, प्रातः – सायं राष्ट्र वंदना भी करते हैं, लेकिन राष्ट्र के खजाने का अरबों रुपया गबन कर जाते हैं, क्या हैं ? राष्ट्रद्रोही नहीं हैं? वे ठेकेदार – इंजीनियर, जो अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए निम्न श्रेणी का निर्माण कार्य करते हैं, जिसके कारण बड़ी दुर्घटना घटती है और राष्ट्र की व्यापक क्षति होती है, वे क्या हैं? वे चिकित्सक जो सरकारी वेतन लेते हुए भी, रोगी को फीस की लालच में सरकारी चिकित्सालय में नहीं देखते, वे क्या हैं? जो भी कर्मचारी पूरा वेतन लेने के उपरान्त भी जन कार्य बगैर घूस के नहीं करता, वह क्या है? व्यापारी विभिन्न उपभोगता वस्तुओं में मिलावट कर, उपभोक्ताओं के जीवन से खिलवाड़ करता है, क्या यह राष्ट्रद्रोह नहीं है ? क्या केवल मुख से नारे लगाना ही राष्ट्रद्रोह है ? यदि नारे लगाने वालों के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह का अभियोग लगाया जा सकता है, तो इन सभी लोगों के विरुद्ध क्यों नहीं? इतने राष्ट्रद्रोही जिस राष्ट्र में निर्द्वंद घूम रहे हों, वहां प्रतिक्रिया स्वरूप इस प्रकार के नारे लगना अस्वाभाविक नहीं है |
यह लोक तंत्र है अर्थात जनता की सरकार जनता के द्वारा जनता के लिए, ऐसा कहा जाता है, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? जिस राष्ट्र में सामान्य नागरिक सदैव असुरक्षित हो; वहां नेता सरकारी सुरक्षा गार्डों की छाया में विभिन्न श्रेणी की सुरक्षा लिए रहते हों? जहां जन सामान्य बगैर चिकित्सा के तडप तडप कर जीवन समाप्त करने को विवश हो वहां जन प्रतिनिधियों को देश में ही नहीं विदेश में भी श्रेष्ठतम चिकित्सा उपलब्ध हो ? जहाँ की ४०% से अधिक जनसँख्या दोनों समय भर पेट निकृष्ट भोजन भी न पाते हों, वहीं उनके प्रतिनिधि मात्र ३० रु में सुस्वादु पौष्टिक भोजन करते हों ? जन सामान्य के लिए सस्ती शिक्षा की व्यवस्था बिगाड़ कर इन नेताओं, व्यापारियों एवं अपराधियों ने महंगी शिक्षा का ऐसा मकड़जाल रचा कि जन सामान्य लुटने के लिए विवश है | सामान्य जनता का परिश्रम से कमाया धन बैंकों में जमा किया जाता है और सरकार की सहमति से उस धन से अरबों रु. बड़े भृष्ट व्यापारी और नेता उधार लेकर वापस नहीं करते, ऐसे में अपना धन होने पर भी सामान्य व्यक्ति धनाभाव में जीवन व्यतीत करने को विवश होता है; जीवन के हर क्षेत्र में मची लूट के कारण, जहां जन सामान्य निरीह एवं विवश है, वहां इस लोकतंत्र के विरुद्ध आक्रोश उत्त्पन्न होना स्वाभाविक है, अतएव यह समझना कठिन है कि अफ्जलगुरू ने संसद पर हमला किया था, या इन ऐयाश भ्रष्ट एवं राष्ट्रद्रोही सांसदों पर ? 
कई बार कोई कुकृत्य जो हमें जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा होता नहीं है, इस विषय में एक छोटी सी घटना उल्लिखित कर रहा हूँ, यह न तो काल्पनिक है, न कहानी है, यह वास्तविक है | मेरे एक सहयोगी थे केंद्र सरकार के कार्यालय में अधिकारी थे, उन्होंने बताया था कि उनके अधीनस्थ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी इतने चोर प्रतीत हुए कि कोई भी छोटा से छोटा सरकारी सामान, (उपकरणों में लगने वाला बिजली का तार, ताला, पेचकस आदि) पलक झपकते गायब हो जाता ; एक - दो माह में ही वे परेशान हो गए, नया सामन खरीदा और गायब, अब तत्काल दूसरा सामन कैसे खरीदें ; परन्तु इसमें एक विशेष बात यह थी, कि व्यक्तिगत सामन चोरी नहीं होता था | उन्होंने एक प्रयोग किया, काफी समय वे अपना कार्यालय छोड़ कर, अधीनस्थ कर्मचारियों के मध्य बैठने लगे, और बाजार से कार्यालय का सभी सामान स्वयं न लाकर उन्ही से मंगवाने लगे ( दूकाने निश्चित थीं, जहां कोई हेराफेरी नहीं होती थी ), और तो और अपनी अलमारी से रूपये भी स्वयं न निकाल कर उन्ही से निकलवाते और बचा धन तथा रसीदें भी उन्ही से रखवाते और लगभग आठ वर्षों में एक भी रु की गड़बड़ी नहीं हुई | कुछ ही दिनों में सब कुछ बदल गया, अब कोई सामान गायब नहीं होता था, इसका तात्पर्य वे चोर नहीं थे; वह केवल प्रतिक्रिया थी; जैसे ही उन्हें विश्वाष हुआ कि उनका अधिकारी भृष्ट नहीं है, तो उन्होंने भी पूर्ण सहयोग दिया था | बहुत पुरानी बात नहीं है, भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शाश्त्री ने सपरिवार स्वयं सप्ताह में एक दिन का उपवास रखते हुए, राष्ट्र से एक दिन का उपवास करने का आग्रह किया था, और आश्चर्य जनक रूप से घरों की बात तो छोडिये होटल भी स्वेक्षा से बंद होते थे |

केवल नैतिक होना ही पर्याप्त नहीं है नैतिक दिखना भी चाहिए | जब तक जनतंत्र में जन उपेक्षित रहेगा और भृष्ट, दुराचारी, अनाचारी नेता जनप्रतिनिधि रहेंगे | भृष्ट कर्मचारी, अपराधी, मिलावटखोर व्यापारी और नेताओं का गठबंधन रहेगा, तब तक इस प्रकार के नारे भी जीवित रहेंगे और राष्ट्रद्रोहितापूर्ण दिखने वाले कृत्य भी; परन्तु वे कृत्य राष्ट्रद्रोह पूर्ण हो आवश्यक नहीं, वे इस भृष्ट व्यवस्था के विरुद्ध हो सकते हैं; वास्तव में राष्ट्रद्रोही ये विरोध प्रदर्शन करने वाले नहीं; अपितु ये राजनेता, माफिया, और मिलावटखोर भ्रष्ट व्यापारी एवं कर्मचारी हैं और दंड के वास्तविक पात्र भी यही लोग हैं |