भारत ईश्वरीय अनुकम्पा से
परिपूर्ण एक ऐसा महान राष्ट्र है, जहाँ संकट के समय वह स्वयं अवतरित होता है | जब
जब इस राष्ट्र पर चतुर्दिक आपदा आई तब कभी राम तो कभी कृष्ण अवतरित हुए, जब यहाँ
हिंसा और अस्पृश्यता का नग्न तांडव हो रहा था तो एक ही समय भगवान् गौतम बुद्ध और
भगवान् महावीर का प्रादुर्भाव हुआ जिसने न केवल भारत, अपितु सम्पूर्ण मानवता के
घावों पर ओषधि लगाने का कार्य किया एवं एक कालजयी मार्ग प्रसस्त किया; इसी प्रकार
जब मुग़ल आक्रान्ता अकबर द्वारा समस्त हिन्दू समाज का क्षद्म सहिष्णुता की आड में
धर्मान्तरण किया जा रहा था और उनकी तीर्थ यात्राओं पर जबरन कर वसूला जाता था, तब
इस समाज का मार्ग दर्शन करने एक साथ कबीर, सूर, तुलसी, मीरा जैसी नित्य वन्दनीय
विभूतियों का अवतरण हुआ और मुग़ल दासता से मुक्त कराने हेतु वीर शिरोमणि महाराणा
प्रताप का निरंतर संघर्ष भयभीत हिन्दू समाज के लिए एक संबल बना रहा था| जब औरंगजेब
का क्रूर शाषन इस राष्ट्र पर अत्याचार कर रहा था, और बलात धर्मांतरण कराया जा रहा
था, तब उसका प्रतिकार करने एक ही समय गुरू तेगबहादुर, वीर शिवाजी महाराज, वीर वर
दुर्गादास, गुरू गोविन्द सिंहजी महाराज जैसी महान विभूतियों का प्रागट्य हुआ | जब
यह राष्ट्र आपसी वैमनस्यता और फूट के कारण कुटिल अंग्रेजों की दासता की बेड़ियों
में जकड़ा, उन्हें तोड़ने को कसमसा रहा था तब सुभाष, चन्द्रशेखर , भगत सिंह, वीर
सावरकर, महात्मा गांधी जैसे सहस्त्रावधि स्वतंत्रता सैनानियों का जन्म हुआ तो यहाँ
व्याप्त बुराइयों का प्रतिकार करने महान चिन्तक डा. हेडगेवार और डा. आंबेडकर जैसे
युगदृष्टाओं का जन्म हुआ, जिन्होंने समग्र हिन्दू समाज के एकीकरण में अतुलनीय
योगदान किया है |
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म डा. हेडगेवार द्वारा १९२५ में अत्यंत सादगी
पूर्ण तरीके से, बगैर किसी आडम्बर के निःष्कपट तरीके से एक छोटे परन्तु अत्यंत
मत्वपूर्ण उद्द्येश्य की पूर्ती के लिए हुआ था | उद्येश्य था समग्र हिन्दू समाज (हिन्दू कोई धर्म या मत
नहीं, अपितु एक जीवन पद्धति है जिसमें एक ओर अहिंसा परमो धर्मा है तो दूसरी ओर शठे
प्रति शाठ्ये है, यही पद्धति कहती है “सर्वे भवन्तु सुखिनः”) को बगैर किसी प्रकार
के भेद भाव के (विभिद उपासना पद्धतियों, जातियों, उप जातियों, वर्ण, राजनैतिक
भिन्नता, मत-मतान्तरो, आर्थिक, सामजिक विभेदों का ध्यान किये बगैर) संगठित करना और
अपने पूर्व गौरव तथा सदाचरण को स्मरण करते हुए, इस राष्ट्र को परम वैभव प्रदान
करना, जितना सहज और सरल इसका जन्म था, उतनी ही सहज और सरल इसकी कार्य पद्धति भी है
| २४ घंटे में निश्चित समय पर मात्र एक घंटे की प्रतिदिन शाखा, जिसमें विभिन्न
शारीरिक व्यायाम, पूर्ण अनुशाषन में रहते हुए सदाचारिता के साथ करना और “तेरा वैभव
अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें” जैसे गीतों द्वारा माँ भारती की वंदना करना और
अंत में माँ भारती की प्रार्थना करना | संघ का मानना है यदि व्यक्ति निर्माण हुआ
तो उससे समाज और समाज से राष्ट्र निर्माण स्वतः होगा | परन्तु विडंबना है कि
अधिकाँश लोग, जो इतने सहज नहीं होते, संघ के इस सरल कार्य को भी शंसय की दृष्टि से
देखते हैं; इसमें उनका कोई दोष नहीं हैं निरंतर चतुर्दिक सामाजिक कुरीतियों और
कुटिलताओं से घिरे किसी भी व्यक्ति को सहज ही किसी की सहजता पर तत्काल विश्वास
नहीं होगा | संघ को समझने के लिए निरंतर समर्पण भाव से उसके सानिद्ध्य में आना
होगा | संघ के विषय में अनेकानेक भ्रान्तियां है कि संघ यह करता है, संघ वह करता
है| यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि संघ केवल और केवल निःस्वार्थी, सदाचारी,
राष्ट्रभक्त व्यक्तियों का निर्माण करता है, यह एक विद्यालय मात्र है| यहाँ से
निकले व्यक्ति अपने अपने तरीके से राष्ट्र और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी
अपनी सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार कार्य करते हैं| ऐसा नहीं है कि संघ के लोगों
में विकार नहीं हैं, या दोष नहीं हैं| संघ की शाखा में मात्र एक घंटे आने वाला
व्यक्ति शेष २३ घंटे उसी कलुषित वातावरण में रहता है, जिसमें सामान्य व्यक्ति की
बात तो क्या, वल्कल वस्त्रधारी सन्यासी भी विकारों में लिप्त पाए जाते हैं; तो
निःश्चित उस वातावरण का प्रभाव भी उस पर रहेगा, फिर शाखा में कितना समर्पण रहता
है, कितने दिन आता है, इन सबका प्रभाव भी रहता है| किसी अच्छे से अच्छे विद्यालय
में भी क्या सभी क्षात्र अच्छे निकलते हैं? एक ही अध्यापक द्वारा पढाए क्षात्रों
में योग्यता और आचरण भिन्न भिन्न पाया जाता है, परन्तु केवल अच्छे क्षात्र के
प्रदर्शन का श्रेय उस संस्थान और उस आचार्य को जाता है| आप अब से पचास वर्ष पूर्व
के हिन्दू समाज का स्मरण करें, जब वह इतना हतोत्साहित और खिन्न था कि स्वयं को
हिन्दू कहलाने में अपमानित अनुभव करता था, आज वही समाज अपने को गौरवान्वित अनुभव
करता है, आज अनेकानेक सन्यासी जो अस्पृश्यता के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं और
आदिवाषी, वनवासी, एवं इस प्रकार के अभावग्रस्त लोगों के मध्य कार्य करते दीखते
हैं, वह कहीं न कहीं संघ जैसी संस्थाओं का अपरोक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव ही है|
इस समय इस राष्ट्र में प्रतिदिन ५१००० से अधिक दैनिक शाखाएं लग रही हैं,
जिनमें व्यक्ति निर्माण का निरंतर प्रयास किया जाता है, संघ शाखाओं पर आने वाले
स्वयंसेवक किसी प्रकार के भय या लालच के वशीभूत हो कर नहीं आते , अपने सीमित
साधनों से अपना और परिवार का भरण-पोषण करते हुए, अपना धन एवं समय दे कर संघ का
कार्य करते हैं | जहां सामान्य व्यक्ति कोई भी कार्य किसी न किसी लाभ की अपेक्षा
से करता है, यहाँ तक कि वैरागी सन्यासी भी अपनी ख्याति और चरण वंदना का लोभ अपने
मन में रखते हैं ; वहीं संघ का स्वयमसेवक सभी प्रकार की इक्षाओं को त्याग
राष्ट्रोत्थान के लिए समर्पित रहता है | ऐसे देवदुर्लभ कार्यकर्ता एक दिन में नहीं
बनते , सतत प्रयास किया जाता है , अपनी ९० वर्ष की इस सतत यात्रा में कई झंझावातों
को सहते हुए संघ ने अनगिनत ऐसे हीरे तराश कर इस राष्ट्र की सेवा में समर्पित किये
हैं , जिनके निःस्वार्थ समर्पण और त्याग के समक्ष किसी का मस्तक भी स्वतः झुक
जाएगा | प्रातः वन्दनीय, एकनाथजी रानाडे जिन्होंने विवेकानंद स्मारक की स्थापना
की, सदा शिव गोविन्द कात्रे, जिन्होंने भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की स्थापना की,
पंडित दीन दयालजी उपद्ध्याय, जिन्होंने अन्त्योदय का विचार राष्ट्र को दिया,
नानाजी देशमुख, जिन्होंने चित्रकूट में ऐसा कार्य खडा किया कि आस-पास के ग्रामीण
बन्धु स्वावलंबी हो सके, भारतीय मजदूर संघ के प्रणेता दत्तो पंतजी ठेंगणी आदि अनेक
ऐसे नगीने ,जिनके कार्य से हम उन्हें जानते हैं ; परन्तु वे मूर्धन्य कार्यकर्ता
जिन्होंने इनको तराश कर इस योग्य बनाया ऐसे सैकड़ों समर्पित कार्यकर्ताओं के नाम
कौन जानता है | यही संघ की परिपाटी है और यही कार्य पद्धति |
जनमानस को संघ से असीमित अपेक्षाएं हैं , संघ का सामर्थ्य सीमित है, क्योंकि जिस
समाज से संघ को स्वयंसेवकों की पूर्ती होती है, वहां निरन्तर मानवीय एवं नैतिक मूल्यों
का पतन होता जा रहा है ऐसे में संघ भी उस प्रदूषण से बच नहीं सका है, विशेष रूप से
जबसे इसे राजनैतिक संबल प्राप्त हुआ है, इसके मूल्यों में गिरावट आई हुई दिखती है और
ऐसे में जब मानस की अपेक्षाएं उनकी इक्षानुरूप पूर्ण नहीं होती तो संघ के
कार्यकर्ता की छोटी से छोटी भूल पर उन्हें क्षोभ होता है और अपना स्नेह गुस्से के
रूप में संघ पर उतारते हैं , यही क्रोध संघ को संबल प्रदान करता है , और उसे भरोसा
दिलाता है, कि समस्त हिन्दू समाज उसकी ओर आशा भरी दृष्टि से निहार रहा है |