आज सम्पूर्ण विश्व में एक अजीब सा व्यर्थ का संघर्ष चल रहा है। समाचार पत्र उठाएं या समाचार चैनल देखें अधिकाँश समाचार आतंक, अपराध और पीड़ा से सम्बंधित ही होते हैं। अच्छे और उत्साह वर्धक समाचारों का अकाल सा पड़ गया है, सम्पूर्ण वातावरण विषाक्त सा है। यह तब है जब विभिन्न मतों को मानने वाले धर्माचार्य निरंतर धर्म के मार्ग पर चलने का उपदेश करते दिखाई देते हैं और लाखों की संख्या में उन्हें सुनने वाले भी, फिर भी हम धर्म के मार्ग पर नहीं चल रहे, कारण क्या है? स्पष्ट है धर्म की भिन्न भिन्न व्याख्या होने के कारण; भिन्न भिन्न धर्मों को मानने वाले भिन्न भिन्न मार्गों पर चलते हुए अपने धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने हेतु अशांत और संघर्ष रत हैं और चाहते हैं कि सभी उनके धर्म का अनुशरण करें। क्या धर्म कई है? नहीं, धर्म केवल और केवल एक है। क्या धर्म अलग अलग भाषाओं में भाषा बद्ध है? नहीं, उसकी एक और एक ही भाषा है।
जो धारण किया जाय वही धर्म है। किसके द्वारा धारण किया जाय? प्राणी मात्र के द्वारा धारण किया जाय। केवल, पुरुष द्वारा नहीं, स्त्री द्वारा नहीं, मानव द्वारा भी नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्राणी मात्र द्वारा धारण किया जाय। 'सर्वे भवन्तु सुखिना ' अर्थात सब सुखी हों का भाव ही धर्म है। धर्म देश और काल की सीमाओं से परे है। धर्म सत्य है जो शाश्वत है, वह सबके लिए सामान रूप से उपयोगी है, उसकी भाषा ईश्वरीय भाषा है जो सहज और सरल है तथा सहज समझ में आने वाली है। धर्म को परिभाषित करते हुए महर्षि वेद्व्याषजी ने कहा है : 'अष्टादश पुराणेषु वेदव्यासश्य वचनं द्वै , परोपकाराय पुण्याय पापाय पर पीडिनम'। अर्थात १८ पुराणों का सार वेद्व्याष के दो वचनों में निहित है , परोपकार ही धर्म और पर पीड़ा ही पाप है। इसी को तुलसीदासजी ने सहज शब्दों में व्यक्त किया है ' पर हित सरिस धरम नहीं भाई , पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ' इसे समझने के लिए एक उदाहरण लें कुत्ते और बिल्ली में सहज शत्रुता होती है परन्तु पालतू होने पर एक साथ रहते हैं, ऐसे में यदि बिल्ली के बच्चे की माँ बच्चे को जन्म देने के पश्चात मर जाए और उसके बच्चे को कुतिया अपना दूध पिलाए तो यह दृष्य किसी को भी कैसा लगेगा? निश्चित आनन्द देने वाला होगा। यही धर्म है जो प्राणीमात्र के लिए है, इसके लिए जिस भाषा की आवश्यकता पडी, वही धर्म की भाषा है। यदि कुतिया चाहती तो बिल्ली के बच्चे को खा सकती थी यह उसका स्वाभाविक धर्म होता, मांसाहारी पशु का धर्म होता और यही सम्प्रदाय है। उसमें किसी को कोई आनन्द नहीं मिलता अपितु अधिकाँश को पीड़ा ही होती।यद्यपि कुतिया को बिल्ली के बच्चे को अपना भोजन बनाने में आनंद मिलता, परन्तु स्वयं दुसरे का भोजन बनने में डर लगता, पीड़ा होती इसीलिये यह धर्म नहीं है; मूल धर्म (परोपकार या प्रेम) में केवल आनंद है, परोपकार करने वाले को भी और परोपकारित होने वाले को भी। देश काल या स्वभाव किसी भी कारण से धर्म से हटना ही सम्प्रदाय है। सभी सम्प्रदायों की स्थापना इसी प्रकार हुई है। सम्प्रदाय सर्वमान्य, सर्वकालिक और सार्वदेशिक नहीं होता है। धर्म में कोई झगड़ा नहीं है, झगडा सम्प्रदाय में है।कुछ सम्प्रदायों के अनुयाई दुसरे सम्प्रदाय के लोगों को बलपूर्वक हिंषा या आतंक के दम पर या विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अपने सम्प्रदाय की मान्यताओं को मानने के लिए विवश करना चाहते हैं और इसे पुण्य या धर्म का कार्य मानते है जो जघन्य अपराध है और होना ही चाहिए। यदि यह कुतिया दुसरे शाकाहारी पशुओं को बलात या प्रलोभन देकर मांसाहारी सम्प्रदाय को मानने को विवश करे तो यह जघन्य पाप होगा और संघर्ष का कारण भी। आज हममें से अधिकाँश , उपासना पद्धति को धर्म मान लेते हैं, जबकि धर्म का उपासना पद्धति से कोई लेना देना नहीं है। क्या अंतर पड़ता है हम कौनसी उपासना करते हैं? किसकी उपासना करते हैं? कैसे उपासना करते है? उपासना करते भी हैं या नहीं करते हैं। अधिकाँश लोगों का मानना है ईश्वर सर्व व्यापी है, अनादि है, अनन्त है, कण कण में व्याप्त है; फिर उसकी उपासना कैसे भी की जाए, कहीं की जाए या न भी की जाए क्या अंतर पड़ता है?तुलसीदासजी ने कहा 'हरि अनन्त हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहु विधि सब सन्ता' अर्थात ईश्वर कण कण में है इसलिए अनन्त रूपों में है, इसीलिये सज्जन लोग उसकी उपासना विविध प्रकार से करते हैं। अब ईश्वर की उपासना किस भाषा में होनी चाहिए? संस्कृत में,हिदी में, अंग्रेजी में, अरबी या फारशी में, वह कौनसी भाषा जानता है? क्या सभी भाषाएँ जानता है? वह इनमें से कोई भाषा नहीं जानता, वह तो मात्र दिल की भाषा जानता है। जिस भाषा को बिल्ली का बच्चा और कुतिया समझती थी, जिस भाषा को तुरंत का जन्मा बच्चा माँ के अंग से लगते ही समझ लेता है। पशु के ऊपर हाथ फेरते ही वह समझ लेता है कि यह हाथ स्नेह का है या कसाई का है। महान वैज्ञानिक जगदीश चंद वसु ने सिद्ध किया था की कुल्हाड़ी लेकर काटने के लिए आने पर वृक्ष डर जाते हैं, वहीं माली पानी देने आता है तो प्रसन्न जाते हैं , यही ईश्वरीय भाषा है इसके लिए किसी सांसारिक भाषा की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 'हरि व्यापक सर्वत्र समाना , प्रेम ते प्रगट होयं भगवाना ' अर्थात प्रेम की भाषा ही ईश्वर समझता है, कबीर कहते हैं 'ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ' इसीलिये सभी मत मानते है करुण पुकार करो वह अवश्य सुनेगा। करुण पुकार माने नकली आंसू बहाना नहीं, दिल से चिंतन मनन करना। उसके लिए मंदिर, मस्जिद या चर्च जाने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। 'कर में तो माला फिरे, जीभ फिरे मुख मांहि ; मनवा तो चहुँ दिशि फिरे, यह तो सुमिरन नाहीं' कुछ मतों में पशु पूजा, पादप या वृक्ष पूजा, जल या नदी, सागर पूजा, पाहन, मूर्ती या पर्वत पूजा का प्रचलन है यहाँ तक की इनमें ईश्वर के मत्स्यावतार, सूकरावतार तक बताए गए हैं जिससे भ्रम होता है। वास्तव में यह इस बात का प्रतीक है कि ईश्वर सामान रूप से सर्वत्र व्याप्त है, तो फिर सभी पशु,पक्षी, जीव-जंतुओं और चराचर में भी वही है जो हम में से प्रत्येक में व्याप्त है, इसलिए वे भी हमारी तरह उसी ईश्वरीय अंश से आलोकित हैं। उपासना का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है और धर्म का पालन प्रत्येक मानव को करना ही चाहिए क्यों कि उसके पास बुद्धि है और वह सम्पूर्ण समाज का एक अंग भूत घटक है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृज्याम्य्हम। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम धर्मसंस्थाप्नार्थाय सम्भवामि युगे युगे। अर्थात जब जब धर्म का नाश होता है, इसमें कहीं उपासना पद्धति को नहीं माना है। धर्म याने परोपकाराय, जब लोग परपीड़ा में उद्यत होते हैं अर्थात अधर्म बढ़ता है तब तब धर्म की स्थापना करने सज्जनों की रक्षा करने और दुष्टों को अर्थात आतंकियों, बलात्कारियों या दूसरों को अनायाष पीड़ा पहुचाने वालों का संघार करने या दण्ड देने के लिए मैं प्रगट होता हूँ। अर्थात कृष्ण नहीं अपितु वह जगत नियंता जो जन जन में व्याप्त है किसी भी जीव में अपनी असीमित शक्ति दे देता है फिर चाहे वह मगर हो, सूअर हो, राम हों, कृष्ण हों, बुद्ध हों, महावीर हों, नानक हों, गांधी हों, मुहम्मद साहब हों या ईशा मशीह हों, सबने अपने अपने समय पर आवश्यकतानुसार लोक कल्याण का कार्य किया, भले ही उस समय कुछ बातों में वे मूल धर्म से हटे हों, इसीलिये उनमें से कई का बताया मार्ग अलग सम्प्रदाय बना जो उस समय उपयोगी और आवश्यक था। धर्म का पालन पहले शाषक करे फिर प्रजा को धर्म का अनुशरण करने के लिए विवश करे यही शाषक का कार्य है ; परन्तु जब शाषक ही अधर्मी हो तो महाभारत ही एक मार्ग बचता है। यदि लोग धर्म का पालन करने वाले हो (चाहे ईश्वर को जिस रूप में माने या न माने) तो कोई किसी की अनावश्यक हत्या कैसे करेगा? बलात्कार कैसे करेगा? घूष कैसे लेगा? दलाली कैसे लेगा? डाका कैसे डालेगा? भ्रूण हत्या कैसे करेगा? धर्म को मानने वाला समाज सहज ही अपराधमुक्त हो जाएगा। यदि समाज, राष्ट्र और विश्व, केवल मानव कल्याण ही नहीं अपितु सबका कल्याण चाहते है और अपराधमुक्त विश्व चाहते हैं तो सम्प्रदायों की कट्टरता को त्याग कर धार्मिक (परहित सरिष धरम नहीं भाई) होना ही होगा अन्यथा अशांति और विनाश निश्चित है।