अनादि काल से भारत की आत्मा आद्ध्यात्म रही है, धर्म रही है। धर्म से तात्पर्य किसी उपासना पद्धति से नहीं है। उपासना पद्धति धर्म है भी नहीं ; धर्म तो सत्य है, सार्वकालिक है, सार्वदेशिक है, सर्वमान्य है उसमें किसी प्रकार का विवाद नहीं है 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ' अर्थात सब सुखी हों सब सज्जन हों का भाव ही धर्म है। इसमें किसी को कोई विवाद उत्पन्न करने का कोई अवसर ही नहीं है। 'मातृवत पर दारेषु , पर द्रव्येषु लोष्ठ वत। आत्मवत सर्व भूतेषु यः पश्यति सः पंडिता ' अर्थात दुसरे की स्त्री को माता सामान और दुसरे की संपदा को मिट्टी के समान समझो तथा सभी को अपने सामान ही समझो का भाव ही धर्म है। इसमें यदि किसी को अपने कुविचारों के कारण आपत्ति होती है तो भी अपने साथ वह ऐसा ही वर्ताव चाहेगा अर्थात यही धर्म है और यही भारत की आत्मा रही है। बच्चे के गर्भ में प्रवेश के साथ ही माता ऐसे सुविचारों का चिंतन मनन एवं श्रवण करते हुए भावी सन्तति को महान मानवीय गुणों से परिपूर्ण करने के प्रयास में लग जाती थी और शिशु के जन्मोपरान्त लोरियों और लोकगीतों , कहानियों , भजनों द्वारा घुट्टी के साथ उसमें मानवीय श्रेष्ठ गुणों का समावेश प्रारम्भ कर देती थी। छोटी छोटी कहानियों में बच्चे को माँ , दादी , नानी हर समय स्मरण कराती रहती थी किसी का कितना भी मूल्यवान सामान तुम्हारे लिए तुक्छ है उधर देखो भी नहीं 'रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव' सभी बालिकाएं तुम्हारी बहन जैसी हैं और बालक भाई समान । स्त्री को सम्मान देना और संकट में उसकी सहायता करना ही पुरुषत्व है , वीरता है 'यत्र नार्यस्तु पूजन्ते , रमन्ते तत्र देवता '। दीन दुखियों के लिए प्राणोत्सर्ग कर देना ही धर्म है 'जो लड़े दीन के हेत सूरा सोई ' किसी की ह्त्या पाप है यहाँ तक कि बगैर किसी कारण के चीटी की हत्या भी पाप मानी जाती है और आत्म ह्त्या महा पाप है,'अहिंसा परमो धर्मः ' बालकों ,वृद्धों एवं स्त्रियों का बध जघन्य अपराध माना जाता है ; 'बालक जानि बधऊँ नहि तोही ' इस प्रकार के दुष्कर्म करने वालों को ही राक्षस कहा गया, स्त्रियों के साथ एक साथ कई लोगों द्वारा बलात सम्बन्ध बनाने, उनके नाजुक अंगों को चोट पहुचाने या शिशुओं के साथ यौन सम्बन्ध बनाने या उनकी हत्या करने वालों को म्लेक्छ या पिशाच कहा गया, विदेशी आक्रमणकारियों के आने के पूर्व इस जघन्य पाप के विषय में भारत में कोई सोच भी नहीं सकता था। सेनाएं आपस में युद्ध किया करती थीं परन्तु सामान्य नागरिक पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। ये सेनाएं नागरिकों को नहीं लूटती थीं उन्हें कोई छति नहीं पहुंचाई जाती थी इसी लिए कहा गया 'कोउ नृप होय हमें का हानी ', भारत में जहाँ व्यर्थ की हिंसा का विरोध किया गया वहीं सज्जनों की सहायता के लिए दुष्टों का सँघार करना ईश्वरीय कार्य माना जाता रहा है 'परित्राणाय साधुनाम , विनाशाय च दुश्क्रताम ' मृत्यु से भयभीत मत हो वह शाश्वत है। यह आत्मा अजर अमर है मरता तो केवल शरीर है, इस प्रकार अमरता का भाव बचपन से उत्पन्न किया जाता था। कायर और कुकर्मी मनुष्य अपमानित हो कर बार बार प्रतिदिन मरता है परन्तु सदाचारी और पराक्रमी मनुष्य धर्म के लिए मर कर भी अमर रहता है। जितना तुम्हारे पास है उसी में संतोष करो 'संतोषम परम सुखं' या गो धन गज धन बाजि धन सब धन और रतन धन खानि , जब आवै संतोष धन सब धन धूरि सामान ' इक्छाओं का अंत नहीं है उन पर नियंत्रण आवश्यक है। परन्तु पूर्ण मनोयोग से कर्म करना है, फल ईश्वर के आधीन है; इस विचार से असफलता में भी निराशा नहीं होती है। चार पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम मोक्ष को प्राप्त करना ही मानव जीवन है अर्थात धर्म पूर्वक धन कमाना ,संचित करना , धर्म पूर्वक काम की पूर्ति करना अर्थात जीवन में कुछ भी करना उसमें धर्म की प्रधानता रहनी है। रात्रि होने पर पौधों को मत छुओ वो सोते हैं , पौधों को मत सताओ , कच्चे फलों को मत तोड़ो हरे पेड़ों को मत काटो उनमे जीवन होता है इसी दादी नानी की कहानियों को सुन कर महान वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र वसु ने विश्व को विवश किया यह मानने के लिए कि पौधों में जीवन होता है। जल जीवन है उसकी बर्बादी मत करो , अन्न देवता है, एक भी दाना बर्बाद करना महा पाप है , गंगा सहित सभी नदियाँ जीवन दाईनी हैं माँ के समान है उनकी उपासना करो उन्हें गंदा मत करो। यह सब बच्चों की घुट्टी के साथ उसके रक्त में घोल दिया जाता है।
इस सब के लिए शासन से कोई धन राशि आवंटित नहीं होती थी; परन्तु समाज अपराध नियंत्रित था समाज में अपराधियों को हेय द्रष्टि से देखा जाता था। नदियाँ निर्मल नीरा और स्वक्छ थीं धरा विविध प्रकार की वनस्पतियों से हरी भरी थी। अति गरीब व्यक्ति भी भूखे पेट रह कर भी अपराध या आत्महत्या के विषय में नहीं सोचता था ,ऐसा सोचना भी पाप होता था। अपनी हर स्थिती पर संतोष था। सभी लोग प्रतिदिन सायं कुछ समय धर्म चर्चा को देते थे , राम की पित्रभक्ति और भरत का भाई के प्रति प्रेम जन जन के ह्रदय में रहता था। हरिशचंद्र का सत्य प्रेम, दधीच का परोपकार , पन्ना धाय की स्वामी भक्ति , हाड़ी रानी का मोह रहित बलिदान , महाराणा प्रताप की घाष की रोटियां खा कर भी दासता स्वीकार न करना , छत्रपति शिवाजी का स्त्री जाति के लिए सम्मान और प्रेम यह सब बच्चों के रक्त में जन्म से ही मिल जाता था ; शाषक जनता का पोषक होता था, उसे ईश्वर का स्थान दिया गया उसके लिए अपना पराया कोई नहीं होता था (अहिल्या बाई होल्कर की न्याय प्रियता विश्व प्रसिद्ध है जिन्होंने अपने ही पुत्र को हाथी से कुचलवा दिया था ) उसे बार बार स्मरण दिलाया जाता था 'जासु राज अति प्रजा दुखारी , सो नृप अवस नरक अधिकारी 'शायद इसी भारत के लिए कहा गया कि ' कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ' ;परन्तु आज हम छद्म धर्मनिर्पेक्छ्ता का लबादा ओड़ कर और पश्चिम का अन्धानुकरण करके वस्तिविक धर्म से बहुत दूर हो गए और अपराध तथा कुकर्म की दुनिया में आकंठ डूब गए हैं। शाषक से लेकर प्रजा तक सभी अपराध में लिप्त हैं , आज सबसे बड़ा अपराधी ही सर्वाधिक सम्मानित है। सचरित्र व्यक्ति उपेक्षित और उपहास का पात्र है। माता पिता और शिक्षक नैतिक मूल्य बढ़ाने के स्थान पर अर्थोपार्जन पर जोर देते हैं। विनम्रता के स्थान पर अहंकार बढाया जा रहा है। 'मात पिता बाल्कान्ह्ही बुलावईं उदर भरै सो नीति सिखावहीं ' आज घरों में धर्म चर्चा होने के स्थान पर षड्यंत्रों, हत्याओं और बलात्कारों से युक्त टी वी सीरियल देखे जाते हैं। विभिन्न विज्ञापनों में उत्तेजना पूर्ण नारी योवन परोसा जाता है। बचपन से कार्टून सीरियलों में बच्चों को उद्दंड , अवज्ञाकारी और असहनशील बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। आज हमारे आदर्श और प्रेरणा श्रोत बदल गए हैं धन महत्वपूर्ण हो गया है , फिर चाहे किसी भी मार्ग से अर्जित किया जाय, इसीलिये सचरित्र, राष्ट्रभक्तों,श्रेष्ठ महापुरुषों के चित्रों के स्थान पर घरों में फूहड़ द्विअर्थी संवादों और उत्तेजना पूर्ण अंग प्रदर्शन करने वाले गीतों पर नृत्य और अभिनय करके जीविका चलाने वालों के चित्र लगाते हैं। प्रातः कोई संत वाणी या सचरित्र्ता की बात सुनने या गुनगुनाने के स्थान पर 'चोली के नीचे क्या है ' जैसे फूहड़ गीत सुनते और गाते हैं। बगैर विवाह के एक या एक से अधिक लोगों से शारीरिक सम्बन्ध रखने वालों को वेश्या कहा जाता है। क्या हमारे समाज में इस प्रकार का चलन नहीं बढ़ा है और ऐसे लोगों का सम्मान नहीं बढ़ा है ? यह दुर्भाग्य पूर्ण है। ऐसी स्थिति में हम हजार प्रयाष कर लें लाखों क़ानून बना लें कोई सुधार होने वाला नहीं है। जब तक शाषक शुद्ध आचरण और नैतिकता से पूर्ण नहीं होंगे तथा घरों और विद्यालयों में अद्ध्यात्मिक तथा नैतिक वातावरण नहीं बनेगा अभिभावकों सहित शिक्षकों को नैतिकता की ओर कदम बढ़ा कर बच्चों में धर्म और नैतिकता के मूल्य उत्पन्न करने ही होंगे अन्यथा अपराध बढ़ते ही जाएंगे।
यदि लोक कल्याण करना है समाज को अपराधमुक्त करना है और चरित्रवान राष्ट्र का निर्माण करना है तो उन उच्च नैतिक एवं आद्ध्यात्मिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करना ही होगा जिन्हें हम भौतिकवादी पूंजीवादी व्यवस्था में दकियानूसी और साम्प्रदायिक बता कर छोड़ चुके हैं ।
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